“अगर बच्चे पुरानी लिपियां नहीं पढ़ पाएंगे, तो हमारी असली विरासत हमेशा के लिए खो जाएगी।” यह कहना है जयपुर की किशोरी गौरी गुप्ता का, जिन्होंने ;लिंग्वाक्वेस्ट नामक एक नया ऐप बनाया है, जिसके जरिए बच्चे शारदा, ग्रंथ, मोडी, प्राचीन नागरी जैसी लुप्त होती भारतीय लिपियों को सीख सकेंगे।
गौरी मानती हैं कि आज जब सब कुछ डिजिटल हो रहा है, लोग सोचते हैं कि पांडुलिपियों को स्कैन कर देने से उनका संरक्षण हो गया। लेकिन उनका सवाल है, “जब किसी को पढ़ना ही नहीं आता, तो स्कैन की हुई लिपियां भी मृत ही रहेंगी। हमारे हजारों सालों का ज्ञान यूं ही बेजान फाइलों में बंद रह जाएगा।”
मनुस्मृति नहीं, पांडुलिपि संरक्षण
गौरी ने हाल ही में राजस्थान के कई स्कूलों में ;संस्कृत टू सिंधी: इंडियाज़ मैन्युस्क्रिप्ट टेल्स नामक वर्कशॉप की शुरुआत की। इसमें बच्चे पर्णपत्र, भोजपत्र, देसी स्याही और सुनहरे वरक को छूकर देखते हैं, पुरानी लिपियों के अक्षर पहचानते हैं, और लिखावट की नक्काशी से जुड़ा इतिहास समझते हैं।
उनकी वर्कशॉप में बच्चे सीखते हैं कि कोलॉफन – यानी पांडुलिपियों के आखिरी हिस्सों में लिखे गए छोटे नोट – किस तरह लेखक का नाम, वंशावली, गुरु परंपरा, रचना की तारीख, और तत्कालीन समाज की जानकारी देते हैं। यह नन्हे इतिहासकारों के लिए रोचक खजाना है।
खगोलशास्त्र, जल विज्ञान और वास्तुकला का गुप्त ज्ञान
गौरी बताती हैं कि कई पांडुलिपियों में जंतर-मंतर की खगोलीय गणनाएं, पुराने तारे-नक्षत्रों के चार्ट, राजस्थान के बावड़ियों की जल-इंजीनियरिंग तकनीक और स्थानीय नक्शे हैं, जिनमें वह ज्ञान छुपा है जो आज भी आधुनिक विज्ञान को चुनौती दे सकता है।
“जब तक बच्चे शारदा या मोडी पढ़ना नहीं सीखेंगे, तब तक ये खजाने बस फोटो बनकर रह जाएंगे,” वह कहती हैं।
लिंग्वाक्वेस्ट: पुरानी लिपियों का डिजिटल गुरुकुल
अपने इसी मिशन के लिए गौरी ने ;लिंग्वाक्वेस्ट ऐप विकसित किया। इसमें शारदा, ग्रंथ, मोडी, प्राचीन नागरी समेत कई लिपियों के लिए स्टेप-बाय-स्टेप अभ्यास, ऑडियो उच्चारण, और पांडुलिपि पढ़ने की शुरुआत शामिल है।
“मेरा सपना है कि हर बच्चा कम से कम एक पुरानी लिपि पढ़ सके। तभी हम भारत की असली पहचान को जान पाएंगे, जो सिर्फ अंग्रेजी या हिंदी से नहीं, बल्कि इन प्राचीन लिपियों से भी बनती है,” गौरी कहती हैं।
युवा नेतृत्व का राष्ट्रीय मिशन
राष्ट्रीय पांडुलिपि मिशन से प्रेरित गौरी का मानना है कि यह सिर्फ इतिहास की बात नहीं, बल्कि भविष्य की शिक्षा नीति का हिस्सा होना चाहिए। वह चाहती हैं कि स्कूलों के पाठ्यक्रम में भी पांडुलिपि अध्ययन, लिपि शास्त्र और सांस्कृतिक संरक्षण को शामिल किया जाए।
उनकी वर्कशॉप में भाग लेने वाले एक छात्र ने कहा, “अब मैं दादी के पुराने गुजराती पोटली-बुक्स पढ़ना सीखूंगा। पहले तो लगता था, यह बेकार हैं।”
गौरी की यह पहल दिखाती है कि विरासत का संरक्षण सिर्फ इमारतों या स्मारकों का नहीं, बल्कि हमारी भाषा, लिपि और ज्ञान परंपरा का भी होना चाहिए।
उनकी यह सोच हमें याद दिलाती है –
“पांडुलिपियां सिर्फ किताबें नहीं, हमारी सभ्यता की सांस हैं।”
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