सवान मास में आने वाली सिवरात्रि का विशेष महत्व है। शिवपुराण के अनुसार, सावन मास में आने वाली शिवरात्रि का दिन भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए और उनकी कृपा पाने के लिए बहुत शुभ माना जाता है। सावन शिवरात्रि का व्रत करने से व्यक्ति की दुख और पीड़ाओं को नाश होता है। साथ ही इस दिन व्रत करने से माता पार्वती और भगवान शिव की कृपा मिलती है। सावन शिवरात्रि के दिन पुराण में वर्णित इस कथा का पाठ करने से व्रत का संपूर्ण लाभ मिलता है।
ऋषि बोले- हे सूतजी ! आपके इन वचनों से हमें बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। अब उसी व्रत को हमें विस्तारपूर्वक सुनाइये। हे सूतजी! क्या इस व्रत को यहां पहले किसी ने किया है और यदि किसी ने अज्ञान से भी किया हो, तो उसका श्रेष्ठ फल क्या होता है- यह कहिये। सूतजी बोले- हे समस्त ऋषियों! इस पर मैं आप लोगों से एक निषाद के इतिहास का वर्णन करता हूं जो सब प्रकार से पापों का नाश करने वाला है।
पूर्व समय वन में गुरुद्रह नाम का एक पापी निषाद रहता था, जो नित्य वन में जाकर मृगों और पशुओं को मारता तथा वहाँ वन में रह कर चोरी आदि दुष्कर्मों को किया करता था तथा बालकपन से लेकर कुछ भी शुभ कर्म नहीं किया था। जब इस प्रकार उस दुष्टात्मा को वन में रहते बहुत दिन हो गये और उससे कोई भी शुभकर्म न बन पड़ा तो एक दिन शिवरात्रि का समय प्राप्त होने पर वह अपनी गर्भिणी स्त्री एवं परिवार के लिए आहार की खोज में वर में घुसा। परन्तु पूरे दिन दौड़-धूप करने पर भी कोई शिकार उसके हाथ न आया। वह सोचने लगा कि आज तो बड़ा ही संकट आया। क्योंकि गर्भिणी स्त्री को तो अवश्य ही कुछ-न-कुछ आहार देना चाहिए।
ऐसा विचार कर वह सरोवर के पास इस ध्येय से जा बैठा कि यहां कोई न कोई जीव जल पीने अवश्य आवेगा और उसे मार कर मैं अपनी भूख शान्त करूंगा। ऐसा सोच कर वह भील सरोवर में जल पीकर वहां स्थित एक बेल के वृक्ष पर जाकर चढ़ गया। रात्रि के प्रथम प्रहर में एक हिरनी प्यास से व्याकुल हो वहां जल पीने आई। भील ने उसे देख प्रसन्न हो अपने धनुष पर बाण चढ़ाया। उसके इतना करते ही उस बेल के वृक्ष से जो जल तथा बेलपत्र वहाँ नीचे स्थित शिवजी के ज्योतिर्लिंग पर गिरा तो उससे शिवजी की पूजा हो गयी। फिर तो उसके प्रताप से उसके सब पाप नष्ट हो गये। तब धनुष के शब्द को सुन हिरनी ने भील की ओर देखा। उसके प्राण व्याकुल हो गये। उसने व्याध से कहा- हे व्याध ! क्या करना चाहते हो? तुम मेरे समक्ष सत्य-सत्य कहो।
मृगी की ऐसी बात सुन कर भील कहने लगा कि आज मेरा कुटुम्ब भूखा है, तुम्हें मार कर मैं अपने कुटुम्बियों की भूख शान करूंगा। तब ऐसे कठिन दुष्ट को देख कर हिरनी सोचने लगी कि हा! मैं क्या करूं, कहां जाऊं? ऐसा विचार कर वह अपने मन में उपाय रच कर बोली कि- हे व्याध ! यदि तू मेरे शरीर के मांस से ही सुखी है तो मेरे लिए इससे बढ़ कर पुण्य और क्या हो सकता है, मैं निस्सन्देह धन्य हूं। उपकार से बढ़ कर इस लोक में दूसरा पुण्य नहीं। परन्तु एक बात है। मैं अपने सब बालकों को अपनी बहन को अथवा स्वामी को सौंप आऊं, तब तुम मुझे मारो। सत्य से ही पृथ्वी स्थिर है, सत्य से ही समुद्र तथा सत्य से ही जल की धारा है। इस प्रकार सत्य से सब कुछ स्थित है। परन्तु मृगी के ऐसा कहने पर भी उस व्याध ने न माना तो विस्मित हो हिरनी ने अनेक शास्त्रोक्त वचन कह उसे अपना विश्वास दिलाया और यह कहा कि यदि मैं लौट कर न आऊं तो नरक में पड़ें। तब भील को विश्वास हुआ और उसने हिरनी को जाने दिया। हिरनी जल पीकर अपने स्थान को गई। तब तक पहला प्रहर उस व्याध को बिना निद्रा के ही बीत गया। तब उस मृगी की बहन दूसरी हिरनी उत्कंठित हो उसकी खोज करती हुई जल पीने के लिए वहीं आई। उसे देख भील ने धनुष खींचा तो पहले के समान ही फिर जल और बेलपत्र शिव के ऊपर गिरे, जिससे व्याघ द्वारा शिवजी के दूसरे प्रहर का भी सुखदायक पूजन हो गया।
तब हिरनी उस भील को देख कर बोली कि, हे वनेचर ! क्या करते हो? भील ने पहले के समान ही वचन कहा। हिरनी बोली, हे व्याध! सुनो, मैं धन्य हूं जो मेरा यह देह धारण करना सफल हुआ। क्योकि इस अनित्य शरीर से उपकार तो होगा, परन्तु मेरे बाल-बच्चे घर हैं। उन्हें अपने स्वामी को सौंप कर फिर मैं यहां आ जाऊंगी। भील ने कहा- नहीं, मैं नहीं मानूंगा और तुझे अवश्य ही मारूंगा। यह सुन कर हिरनी ने पूर्व हिरनी के समान ही शास्त्रोक्त प्रमाणों से विश्वास दिला कर बोली कि यदि मैं न आऊं तो मुझे नरक में भी ठिकाना न लगे। मृगी के इस प्रकार वचनों को सुनकर भील ने मृगी से कहा कि अच्छा जा। हिरनी प्रसन्न हो जल पीकर अपने घर गई। तब तक उस भील का बिना नींद के दूसरा प्रहर भी बीत गया और तीसरा प्रहर आया। परन्तु हिरनी के अब तक न आने से व्याध चकित हो उसकी खोज में तत्पर हुआ। तब तक उसे एक मृग आता हुआ दिखाई दिया। उस हृष्ट-पुष्ट मृग को आते देख व्याध धनुष चढ़ा उसे मारने चला। इतने में कुछ को बेलपत्र उसके प्रारब्धवश फिर शिव के ऊपर गिरे, जिनसे उस रात्रि में भील के भाग्य से तीसरे प्रहर की शिव की पूजा हो गई। शिवजी ने उस पर कृपा की। उस शब्द को सुन कर मृग ने कहा कि, हे भील! तुम यह क्या करते हो? व्याध ने उत्तर दिया कि मैं अपने कुटुम्ब के लिए तुझे मारूंगा।
यह सुन हिरन प्रसन्न हो उस व्याध से बोला- मैं धन्य हूं जो यह शरीर दूसरे के उपकार के लिए लगेगा। परन्तु मैं अपने बाल-बच्चों को उनकी माता को सौंप आऊं तब तुम मुझे मारो। व्याध ने कहा-नहीं, इसी प्रकार तो यहां तीन जीव आये और कह कर चले गये। अब मैं तुझे नहीं जाने दूंगा। संकट में प्राप्त हो जो झुठाई से समय व्यतीत करता है उसका जीवन कैसे रहेगा ? मृग ने कहा- नहीं, मैं झूठ नहीं कहता हूं। देखो, यह सारा चराचर सत्य में ही स्थित है। झूठ बोलने वाले का पुण्य नष्ट हो जाता है। मैं तुमसे सत्य कहता है कि, सन्ध्या समय मैथुन करने से तथा शिवरात्रि के दिन भोजन करने से, झूठी गवाही देने से, किसी की धरोहर मार लेने पर तथा सख्या न करने वाले ब्राह्मण को जो पाप होता है वह पाप मुझे लगे, यदि मैं लौट कर यहां न आऊं। शिवजी कहते हैं कि, तब उस मृग की ऐसी बात सुन कर व्याध ने कहा- जाओ। हिरन जल पीकर अपने घर चला गया। वहां जाकर हिरन हिरनी सब आपस में मिले और एक दूसरे को प्रणाम कर परस्पर उस वृत्तान्त को कहने लगे और बोले कि निश्चय ही वहां जाना उचित है। सबने अपने बालकों को धैर्य दिया और जाने की तैयारी की। तब बड़ी हिरनी ने कहा, पहले मैं गई थी इससे अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए मुझे ही पहले जाने दो।
तब उसका यह वचन सुन दूसरी और उससे भी छोटी तीसरी हिरनी ने कहा- नहीं, मैं तुम्हारी टहलनी हूं, मुझे जाने दो। परनु हिरन ने कहा- नहीं, तुम दोनों यहीं स्थिर रहो, वहां मैं जाता हूं। कारण कि माता से ही बालकों की रक्षा होती है। हिरनियों ने कहा-नहीं, विधवापन सबसे कठिन दुख है। हमीं जायेंगी। वे सभी उन बालकों को धैर्य दे, उन्हें अपने पड़ोसियों को सौंप शीघ्र वहां गये जहां कि वह श्रेष्ठ व्याध था। तब अपने माता-पिता को वहां गये देख उनके सब बालक भी पीछे-पीछे यह सोच कर वहां चले कि जो दशा माता-पिता की होगी वही हमको भी स्वीकार है। इस प्रकार उन सबको वहां पहुंचा हुआ देख कर वह भील प्रसन्न हो गया और धनुष पर बाण चढ़ाने लगा। तब फिर शिवजी के ऊपर जल तथा बेलपत्र गिरे जिससे शिवजा की चौथे प्रहर की पूजा हो गयी और जिसके पुण्य से उसका सब पाप भस्म हो गया। तब तक मृगा और मृगी व्याध से बाण चलाने को कहने लगे। परन्तु शिवजी की माया! भील को ज्ञान हो गया, उसने कहा- "ये मृगा-मृगी धन्य है, जो परोपकार के लिए इस प्रकार अपने शरीर को होम किया चाहते हैं। मनुष्य जन्म पाकर मैने क्या फल पाया जो दूसरों के शरीर को पीड़ा देकर अपने शरीर का पालन किया। ऐसे पाप से मेरी क्या गति होगी ? मेरे जीवन को धिक्कार है, धिक्कार है। इस प्रकार का ज्ञान आते ही भील ने धनुष पर चढ़ाये बाण को उतार लिया और कहा कि मृग श्रेष्ठो ! तुम धन्य हो। अब अपने घर जाओ।
भील के ऐसा कहते ही शिवजी प्रसन्न हो गये। उन्होंने पूजनीय शास्त्र सम्मत अपना स्वरूप दिखाया और कृपा कर उस भील को स्पर्श करते हुए बोले कि, हे भील! मैं तेरे इस व्रत से प्रसन्न हूं, तू वर मांग। व्याध भी शिव के स्वरूप को देख क्षणमात्र में मुक्त हो उनके चरणों में गिर पड़ा। शिवजी ने उसे यह नाम देकर कृपा-दृष्टि से देख दिव्य वरदान दिया और कहा कि तुम्हारे घर साक्षात् रामजी निश्चय ही पधारेंगे। तुम उनसे मित्रता कर मेरी सेवा करते हुए दुर्लभ मोक्ष को प्राप्त करना। उधर शिव का दर्शन कर मृगों को भी दुर्लभ मोक्ष गति प्राप्त हुई। सब दिव्य शरीर धारण कर विमान में बैठ शाप से छूट स्वर्ग को गये। तब से शिवजी का व्याधेश्वर नाम पड़ा और वे अर्बुदाचल पर स्थित हुए। वह भील भी रामचन्द्र का दर्शन कर सायुज्य मुक्ति को प्राप्त हुआ। इस प्रकार संसार में अनेकों व्रत, अनेकों तीर्थ और अनेकों प्रकार के दान और यज्ञ हैं- परन्तु शिवरात्रि का व्रत सबसे श्रेष्ठ है। यह शुभ व्रतों का राजा है। अपना हित चाहने वाले को यह व्रत अवश्य करना चाहिए।
ऋषि बोले- हे सूतजी ! आपके इन वचनों से हमें बड़ा आनन्द प्राप्त हुआ। अब उसी व्रत को हमें विस्तारपूर्वक सुनाइये। हे सूतजी! क्या इस व्रत को यहां पहले किसी ने किया है और यदि किसी ने अज्ञान से भी किया हो, तो उसका श्रेष्ठ फल क्या होता है- यह कहिये। सूतजी बोले- हे समस्त ऋषियों! इस पर मैं आप लोगों से एक निषाद के इतिहास का वर्णन करता हूं जो सब प्रकार से पापों का नाश करने वाला है।
पूर्व समय वन में गुरुद्रह नाम का एक पापी निषाद रहता था, जो नित्य वन में जाकर मृगों और पशुओं को मारता तथा वहाँ वन में रह कर चोरी आदि दुष्कर्मों को किया करता था तथा बालकपन से लेकर कुछ भी शुभ कर्म नहीं किया था। जब इस प्रकार उस दुष्टात्मा को वन में रहते बहुत दिन हो गये और उससे कोई भी शुभकर्म न बन पड़ा तो एक दिन शिवरात्रि का समय प्राप्त होने पर वह अपनी गर्भिणी स्त्री एवं परिवार के लिए आहार की खोज में वर में घुसा। परन्तु पूरे दिन दौड़-धूप करने पर भी कोई शिकार उसके हाथ न आया। वह सोचने लगा कि आज तो बड़ा ही संकट आया। क्योंकि गर्भिणी स्त्री को तो अवश्य ही कुछ-न-कुछ आहार देना चाहिए।
ऐसा विचार कर वह सरोवर के पास इस ध्येय से जा बैठा कि यहां कोई न कोई जीव जल पीने अवश्य आवेगा और उसे मार कर मैं अपनी भूख शान्त करूंगा। ऐसा सोच कर वह भील सरोवर में जल पीकर वहां स्थित एक बेल के वृक्ष पर जाकर चढ़ गया। रात्रि के प्रथम प्रहर में एक हिरनी प्यास से व्याकुल हो वहां जल पीने आई। भील ने उसे देख प्रसन्न हो अपने धनुष पर बाण चढ़ाया। उसके इतना करते ही उस बेल के वृक्ष से जो जल तथा बेलपत्र वहाँ नीचे स्थित शिवजी के ज्योतिर्लिंग पर गिरा तो उससे शिवजी की पूजा हो गयी। फिर तो उसके प्रताप से उसके सब पाप नष्ट हो गये। तब धनुष के शब्द को सुन हिरनी ने भील की ओर देखा। उसके प्राण व्याकुल हो गये। उसने व्याध से कहा- हे व्याध ! क्या करना चाहते हो? तुम मेरे समक्ष सत्य-सत्य कहो।
मृगी की ऐसी बात सुन कर भील कहने लगा कि आज मेरा कुटुम्ब भूखा है, तुम्हें मार कर मैं अपने कुटुम्बियों की भूख शान करूंगा। तब ऐसे कठिन दुष्ट को देख कर हिरनी सोचने लगी कि हा! मैं क्या करूं, कहां जाऊं? ऐसा विचार कर वह अपने मन में उपाय रच कर बोली कि- हे व्याध ! यदि तू मेरे शरीर के मांस से ही सुखी है तो मेरे लिए इससे बढ़ कर पुण्य और क्या हो सकता है, मैं निस्सन्देह धन्य हूं। उपकार से बढ़ कर इस लोक में दूसरा पुण्य नहीं। परन्तु एक बात है। मैं अपने सब बालकों को अपनी बहन को अथवा स्वामी को सौंप आऊं, तब तुम मुझे मारो। सत्य से ही पृथ्वी स्थिर है, सत्य से ही समुद्र तथा सत्य से ही जल की धारा है। इस प्रकार सत्य से सब कुछ स्थित है। परन्तु मृगी के ऐसा कहने पर भी उस व्याध ने न माना तो विस्मित हो हिरनी ने अनेक शास्त्रोक्त वचन कह उसे अपना विश्वास दिलाया और यह कहा कि यदि मैं लौट कर न आऊं तो नरक में पड़ें। तब भील को विश्वास हुआ और उसने हिरनी को जाने दिया। हिरनी जल पीकर अपने स्थान को गई। तब तक पहला प्रहर उस व्याध को बिना निद्रा के ही बीत गया। तब उस मृगी की बहन दूसरी हिरनी उत्कंठित हो उसकी खोज करती हुई जल पीने के लिए वहीं आई। उसे देख भील ने धनुष खींचा तो पहले के समान ही फिर जल और बेलपत्र शिव के ऊपर गिरे, जिससे व्याघ द्वारा शिवजी के दूसरे प्रहर का भी सुखदायक पूजन हो गया।
तब हिरनी उस भील को देख कर बोली कि, हे वनेचर ! क्या करते हो? भील ने पहले के समान ही वचन कहा। हिरनी बोली, हे व्याध! सुनो, मैं धन्य हूं जो मेरा यह देह धारण करना सफल हुआ। क्योकि इस अनित्य शरीर से उपकार तो होगा, परन्तु मेरे बाल-बच्चे घर हैं। उन्हें अपने स्वामी को सौंप कर फिर मैं यहां आ जाऊंगी। भील ने कहा- नहीं, मैं नहीं मानूंगा और तुझे अवश्य ही मारूंगा। यह सुन कर हिरनी ने पूर्व हिरनी के समान ही शास्त्रोक्त प्रमाणों से विश्वास दिला कर बोली कि यदि मैं न आऊं तो मुझे नरक में भी ठिकाना न लगे। मृगी के इस प्रकार वचनों को सुनकर भील ने मृगी से कहा कि अच्छा जा। हिरनी प्रसन्न हो जल पीकर अपने घर गई। तब तक उस भील का बिना नींद के दूसरा प्रहर भी बीत गया और तीसरा प्रहर आया। परन्तु हिरनी के अब तक न आने से व्याध चकित हो उसकी खोज में तत्पर हुआ। तब तक उसे एक मृग आता हुआ दिखाई दिया। उस हृष्ट-पुष्ट मृग को आते देख व्याध धनुष चढ़ा उसे मारने चला। इतने में कुछ को बेलपत्र उसके प्रारब्धवश फिर शिव के ऊपर गिरे, जिनसे उस रात्रि में भील के भाग्य से तीसरे प्रहर की शिव की पूजा हो गई। शिवजी ने उस पर कृपा की। उस शब्द को सुन कर मृग ने कहा कि, हे भील! तुम यह क्या करते हो? व्याध ने उत्तर दिया कि मैं अपने कुटुम्ब के लिए तुझे मारूंगा।
यह सुन हिरन प्रसन्न हो उस व्याध से बोला- मैं धन्य हूं जो यह शरीर दूसरे के उपकार के लिए लगेगा। परन्तु मैं अपने बाल-बच्चों को उनकी माता को सौंप आऊं तब तुम मुझे मारो। व्याध ने कहा-नहीं, इसी प्रकार तो यहां तीन जीव आये और कह कर चले गये। अब मैं तुझे नहीं जाने दूंगा। संकट में प्राप्त हो जो झुठाई से समय व्यतीत करता है उसका जीवन कैसे रहेगा ? मृग ने कहा- नहीं, मैं झूठ नहीं कहता हूं। देखो, यह सारा चराचर सत्य में ही स्थित है। झूठ बोलने वाले का पुण्य नष्ट हो जाता है। मैं तुमसे सत्य कहता है कि, सन्ध्या समय मैथुन करने से तथा शिवरात्रि के दिन भोजन करने से, झूठी गवाही देने से, किसी की धरोहर मार लेने पर तथा सख्या न करने वाले ब्राह्मण को जो पाप होता है वह पाप मुझे लगे, यदि मैं लौट कर यहां न आऊं। शिवजी कहते हैं कि, तब उस मृग की ऐसी बात सुन कर व्याध ने कहा- जाओ। हिरन जल पीकर अपने घर चला गया। वहां जाकर हिरन हिरनी सब आपस में मिले और एक दूसरे को प्रणाम कर परस्पर उस वृत्तान्त को कहने लगे और बोले कि निश्चय ही वहां जाना उचित है। सबने अपने बालकों को धैर्य दिया और जाने की तैयारी की। तब बड़ी हिरनी ने कहा, पहले मैं गई थी इससे अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए मुझे ही पहले जाने दो।
तब उसका यह वचन सुन दूसरी और उससे भी छोटी तीसरी हिरनी ने कहा- नहीं, मैं तुम्हारी टहलनी हूं, मुझे जाने दो। परनु हिरन ने कहा- नहीं, तुम दोनों यहीं स्थिर रहो, वहां मैं जाता हूं। कारण कि माता से ही बालकों की रक्षा होती है। हिरनियों ने कहा-नहीं, विधवापन सबसे कठिन दुख है। हमीं जायेंगी। वे सभी उन बालकों को धैर्य दे, उन्हें अपने पड़ोसियों को सौंप शीघ्र वहां गये जहां कि वह श्रेष्ठ व्याध था। तब अपने माता-पिता को वहां गये देख उनके सब बालक भी पीछे-पीछे यह सोच कर वहां चले कि जो दशा माता-पिता की होगी वही हमको भी स्वीकार है। इस प्रकार उन सबको वहां पहुंचा हुआ देख कर वह भील प्रसन्न हो गया और धनुष पर बाण चढ़ाने लगा। तब फिर शिवजी के ऊपर जल तथा बेलपत्र गिरे जिससे शिवजा की चौथे प्रहर की पूजा हो गयी और जिसके पुण्य से उसका सब पाप भस्म हो गया। तब तक मृगा और मृगी व्याध से बाण चलाने को कहने लगे। परन्तु शिवजी की माया! भील को ज्ञान हो गया, उसने कहा- "ये मृगा-मृगी धन्य है, जो परोपकार के लिए इस प्रकार अपने शरीर को होम किया चाहते हैं। मनुष्य जन्म पाकर मैने क्या फल पाया जो दूसरों के शरीर को पीड़ा देकर अपने शरीर का पालन किया। ऐसे पाप से मेरी क्या गति होगी ? मेरे जीवन को धिक्कार है, धिक्कार है। इस प्रकार का ज्ञान आते ही भील ने धनुष पर चढ़ाये बाण को उतार लिया और कहा कि मृग श्रेष्ठो ! तुम धन्य हो। अब अपने घर जाओ।
भील के ऐसा कहते ही शिवजी प्रसन्न हो गये। उन्होंने पूजनीय शास्त्र सम्मत अपना स्वरूप दिखाया और कृपा कर उस भील को स्पर्श करते हुए बोले कि, हे भील! मैं तेरे इस व्रत से प्रसन्न हूं, तू वर मांग। व्याध भी शिव के स्वरूप को देख क्षणमात्र में मुक्त हो उनके चरणों में गिर पड़ा। शिवजी ने उसे यह नाम देकर कृपा-दृष्टि से देख दिव्य वरदान दिया और कहा कि तुम्हारे घर साक्षात् रामजी निश्चय ही पधारेंगे। तुम उनसे मित्रता कर मेरी सेवा करते हुए दुर्लभ मोक्ष को प्राप्त करना। उधर शिव का दर्शन कर मृगों को भी दुर्लभ मोक्ष गति प्राप्त हुई। सब दिव्य शरीर धारण कर विमान में बैठ शाप से छूट स्वर्ग को गये। तब से शिवजी का व्याधेश्वर नाम पड़ा और वे अर्बुदाचल पर स्थित हुए। वह भील भी रामचन्द्र का दर्शन कर सायुज्य मुक्ति को प्राप्त हुआ। इस प्रकार संसार में अनेकों व्रत, अनेकों तीर्थ और अनेकों प्रकार के दान और यज्ञ हैं- परन्तु शिवरात्रि का व्रत सबसे श्रेष्ठ है। यह शुभ व्रतों का राजा है। अपना हित चाहने वाले को यह व्रत अवश्य करना चाहिए।
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