विचारपूर्वक किए जाने वाले क्रियमाण कर्म का नाम प्रयत्न है, प्रयत्न के तीन भेद हैं, शुभ कर्म, अशुभ कर्म और शुभाशुभ मिश्रित कर्म। शुभ कर्म का फल सुख, अशुभ कर्म का फल दुःख और शुभाशुभ मिश्रित कर्म का फल सुख-दुःख दोनों से मिला हुआ होता है। अधिकांश मनुष्यों को उनके प्रयत्न रूपी कर्मों का अच्छा, बुरा और मिला-जुला, फल परिणाम के रूप में प्राप्त होता है। मनुष्य कर्म करने में तो स्वतंत्र है, पर फल भोग में सर्वथा परतंत्र है। इसका अभिप्राय यह है कि व्यक्ति कर्म तो अपने अनुसार करता है, लेकिन अपने कर्मों के परिणाम को अपने अनुसार नियंत्रित नहीं कर सकता। फल का निर्धारण कई कारकों पर निर्भर करता है, जैसे समय, परिस्थितियां, अन्य लोगों के कर्म और सबसे बढ़कर, ईश्वर या ब्रह्मांड की न्याय व्यवस्था।   
   
प्रयत्न, मनुष्य के विचार, वाणी और आचरण, तीनों का सम्मिलित रूप है। प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर ने स्वतंत्र इच्छा प्रदान की है, जिसके आधार पर वह यह तय करता है कि उसे क्या करना है और क्या नहीं, यही उसकी कर्म करने की स्वतंत्रता है। गीता के दूसरे अध्याय के 47वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा भी है, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” अर्थात, मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं। इस दृष्टि से देखा जाए तो कर्म स्वतंत्रता का प्रतीक है, जबकि फल भोग नियति का परिणाम। पूर्व में निष्काम भाव से किए हुए कर्म और उपासना के फलस्वरूप मनुष्य को संत-महात्माओं का संग प्राप्त होता है, किन्तु उनके मिलने पर उनके बताए साधन को सुनकर उनके अनुसार मनुष्य प्रयत्न करता है, तो उसका कल्याण हो जाता है, केवल सुनने मात्र से नहीं। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने कर्मों को शुद्ध, निःस्वार्थ और कर्तव्यभाव से करे, क्योंकि फल उसी के अनुरूप प्राप्त होगा, चाहे तुरंत मिले या भविष्य में। फल की चिंता किए बिना कर्म करते रहना ही जीवन का श्रेष्ठ मार्ग है।
     
  
प्रयत्न, मनुष्य के विचार, वाणी और आचरण, तीनों का सम्मिलित रूप है। प्रत्येक मनुष्य को ईश्वर ने स्वतंत्र इच्छा प्रदान की है, जिसके आधार पर वह यह तय करता है कि उसे क्या करना है और क्या नहीं, यही उसकी कर्म करने की स्वतंत्रता है। गीता के दूसरे अध्याय के 47वें श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा भी है, “कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।” अर्थात, मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर नहीं। इस दृष्टि से देखा जाए तो कर्म स्वतंत्रता का प्रतीक है, जबकि फल भोग नियति का परिणाम। पूर्व में निष्काम भाव से किए हुए कर्म और उपासना के फलस्वरूप मनुष्य को संत-महात्माओं का संग प्राप्त होता है, किन्तु उनके मिलने पर उनके बताए साधन को सुनकर उनके अनुसार मनुष्य प्रयत्न करता है, तो उसका कल्याण हो जाता है, केवल सुनने मात्र से नहीं। मनुष्य को चाहिए कि वह अपने कर्मों को शुद्ध, निःस्वार्थ और कर्तव्यभाव से करे, क्योंकि फल उसी के अनुरूप प्राप्त होगा, चाहे तुरंत मिले या भविष्य में। फल की चिंता किए बिना कर्म करते रहना ही जीवन का श्रेष्ठ मार्ग है।
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