नई दिल्ली: दिल्ली हाई कोर्ट ने लगभग 36 साल पहले क्रूरता, विश्वासघात और पहचान छिपाकर दो शादियां करने के अपराधों के लिए दर्ज मामले में फिर से मुकदमा चलाए जाने के आदेश के खिलाफ एक व्यक्ति की याचिका खारिज कर दी। हाई कोर्ट ने इस मामले में सेशन जज के फैसले को पूरी तरह से सही और संतुलित ठहराया, जिसने शिकायतकर्ता की गवाही दर्ज किए बिना याचिकाकर्ता को बरी करने वाले आदेश को निरस्त कर दिया था।
याचिका में कोई दम नहीं
जस्टिस नीना बंसल कृष्णा ने 6 नवंबर को जारी किए गए अपने फैसले में कहा कि जिस आदेश को यहां चुनौती दी गई, उसमें कोई गलती नहीं है। याचिका में कोई दम नहीं है, जिसे खारिज किया जाता है। हालांकि, यह देखते हुए कि एफआईआर 1989 की थी और मुकदमा लगभग 36 सालों तक चला है, संबंधित निचली अदालत को छह महीने के भीतर मुकदमा खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए।
निचली अदालत में होना होगा पेश कोर्ट ने आगे कहा कि शिकायतकर्ता को गवाही दर्ज कराने के लिए निचली अदालत में पेश होना होगा और किसी भी पक्ष को गलत तरीके से सुनवाई टालने का अनुरोध करने की इजाजत नहीं होगी। कोर्ट ने सेशन जज के फैसले से सहमति जताई जिन्होंने कहा था कि शिकायतकर्ता को समन देने की ईमानदारी से कोशिश नहीं हुई, इसलिए उसे अपनी शिकायत के समर्थन में ट्रायल कोर्ट में गवाह के रूप में पेश होने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
एफआईआर 1989 में दर्ज की गई थीयाचिकाकर्ता ने सेशन कोर्ट के आदेश के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील दायर की। दावा किया कि शिकायती महिला की आपराधिक अपील विचार के लायक नहीं है, क्योंकि मौजूदा मामले में एफआईआर साल 1989 में दर्ज की गई थी और सीआरपीसी, 1973 में आपराधिक कानून संशोधन, 2005 आने तक शिकायतकर्ता द्वारा दोषमुक्ति के खिलाफ अपील दायर करने का कोई प्रावधान नहीं था। आरोप के मुताबिक, शिकायतकर्ता और याचिकाकर्ता, डीडीए के एक ही विभाग में काम करते थे।
याचिका में कोई दम नहीं
जस्टिस नीना बंसल कृष्णा ने 6 नवंबर को जारी किए गए अपने फैसले में कहा कि जिस आदेश को यहां चुनौती दी गई, उसमें कोई गलती नहीं है। याचिका में कोई दम नहीं है, जिसे खारिज किया जाता है। हालांकि, यह देखते हुए कि एफआईआर 1989 की थी और मुकदमा लगभग 36 सालों तक चला है, संबंधित निचली अदालत को छह महीने के भीतर मुकदमा खत्म करने की कोशिश करनी चाहिए।
निचली अदालत में होना होगा पेश कोर्ट ने आगे कहा कि शिकायतकर्ता को गवाही दर्ज कराने के लिए निचली अदालत में पेश होना होगा और किसी भी पक्ष को गलत तरीके से सुनवाई टालने का अनुरोध करने की इजाजत नहीं होगी। कोर्ट ने सेशन जज के फैसले से सहमति जताई जिन्होंने कहा था कि शिकायतकर्ता को समन देने की ईमानदारी से कोशिश नहीं हुई, इसलिए उसे अपनी शिकायत के समर्थन में ट्रायल कोर्ट में गवाह के रूप में पेश होने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
एफआईआर 1989 में दर्ज की गई थीयाचिकाकर्ता ने सेशन कोर्ट के आदेश के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील दायर की। दावा किया कि शिकायती महिला की आपराधिक अपील विचार के लायक नहीं है, क्योंकि मौजूदा मामले में एफआईआर साल 1989 में दर्ज की गई थी और सीआरपीसी, 1973 में आपराधिक कानून संशोधन, 2005 आने तक शिकायतकर्ता द्वारा दोषमुक्ति के खिलाफ अपील दायर करने का कोई प्रावधान नहीं था। आरोप के मुताबिक, शिकायतकर्ता और याचिकाकर्ता, डीडीए के एक ही विभाग में काम करते थे।
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