दिलीप लाल: माइटोकॉन्ड्रिया को कोशिका का पावरहाउस कहा जाता है, क्योंकि यह शरीर के जरूरी अंगों के लिए ऊर्जा उत्पन्न करता है। लेकिन जब यह ठीक से काम नहीं करता, तो माइटोकॉन्ड्रियल बीमारी हो जाती है। यह बीमारी मस्तिष्क, हृदय, मांसपेशियों और यकृत जैसे महत्वपूर्ण अंगों को प्रभावित करती है। इसके लक्षणों में मांसपेशियों की कमजोरी, दृष्टिहीनता और अंगों की विफलता जैसी गंभीर समस्याएं शामिल होती हैं।
वैश्विक स्तर पर हर 5,000 में एक बच्चा इस बीमारी से ग्रसित होता है। खास बात यह कि इसका पक्का इलाज अब तक नहीं है। लेकिन हाल के दिनों में इस दिशा में काफी तेजी से काम हुआ है। वैज्ञानिकों ने एक उन्नत IVF तकनीक Pronuclear Transfer का उपयोग कर आठ ऐसे बच्चों को जन्म दिया है, जिनकी माताओं में माइटोकॉन्ड्रियल बीमारी थी।
यह तकनीक इंग्लैंड की Newcastle University में विकसित की गई, जिसमें माता-पिता के साथ एक डोनर महिला के डीएनए को संयोजित किया गया। साधारण IVF से इतर, इस प्रक्रिया में माता के रोगग्रस्त माइटोकॉन्ड्रिया को हटाकर डोनर महिला के स्वस्थ माइटोकॉन्ड्रिया को जोड़ा जाता है। इस तरह संतान को मां की घातक बीमारी से बचाया जा सकता है। अब तक (जुलाई 2025) 35 मामलों में ही इस तकनीक का इस्तेमाल किया गया है।
लेकिन यह संख्या आने वाले वर्षों में बढ़ सकती है। वैज्ञानिक इसे केवल माइटोकॉन्ड्रियल बीमारी ही नहीं, बल्कि भविष्य के अनेक आनुवंशिक रोगों के उपचार के लिहाज से भी एक निर्णायक कदम मानते हैं। भारत जैसे देशों के लिए, जहां आनुवंशिक परीक्षण और परामर्श अभी सीमित हैं, यह तकनीक गंभीर बीमारियों से पीड़ित माताओं के लिए आशा का नया द्वार खोल सकती है।
वैश्विक स्तर पर हर 5,000 में एक बच्चा इस बीमारी से ग्रसित होता है। खास बात यह कि इसका पक्का इलाज अब तक नहीं है। लेकिन हाल के दिनों में इस दिशा में काफी तेजी से काम हुआ है। वैज्ञानिकों ने एक उन्नत IVF तकनीक Pronuclear Transfer का उपयोग कर आठ ऐसे बच्चों को जन्म दिया है, जिनकी माताओं में माइटोकॉन्ड्रियल बीमारी थी।
यह तकनीक इंग्लैंड की Newcastle University में विकसित की गई, जिसमें माता-पिता के साथ एक डोनर महिला के डीएनए को संयोजित किया गया। साधारण IVF से इतर, इस प्रक्रिया में माता के रोगग्रस्त माइटोकॉन्ड्रिया को हटाकर डोनर महिला के स्वस्थ माइटोकॉन्ड्रिया को जोड़ा जाता है। इस तरह संतान को मां की घातक बीमारी से बचाया जा सकता है। अब तक (जुलाई 2025) 35 मामलों में ही इस तकनीक का इस्तेमाल किया गया है।
लेकिन यह संख्या आने वाले वर्षों में बढ़ सकती है। वैज्ञानिक इसे केवल माइटोकॉन्ड्रियल बीमारी ही नहीं, बल्कि भविष्य के अनेक आनुवंशिक रोगों के उपचार के लिहाज से भी एक निर्णायक कदम मानते हैं। भारत जैसे देशों के लिए, जहां आनुवंशिक परीक्षण और परामर्श अभी सीमित हैं, यह तकनीक गंभीर बीमारियों से पीड़ित माताओं के लिए आशा का नया द्वार खोल सकती है।
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