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शीर्ष अदालत ने न्यायपालिका में करियर ठहराव पर चिंता जताई, वरिष्ठता मानदंड तय करने के लिए सुनवाई शुरू

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नई दिल्ली: देशभर में निचले स्तर पर नियुक्ति के साथ शुरुआत करने वाले न्यायिक अधिकारियों की धीमी और असमान करियर प्रगति पर चिंता व्यक्त करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने मंगलवार को उच्च न्यायिक सेवा (एचजेएस) संवर्ग में वरिष्ठता निर्धारित करने के लिए राष्ट्रव्यापी मानदंड तैयार करने पर सुनवाई शुरू की।

हाई कोर्ट के जज भी नहीं बन पाते कई ऑफिसर

चीफ जस्टिस बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने इस स्थिति पर गौर किया कि ''अधिकतर राज्यों में दीवानी जज (सीजे) के रूप में भर्ती होने वाले ज्यूडिशियल ऑफिसर हाई कोर्ट के जजों के पद तक पहुंचना तो दूर, चीफ डिस्ट्रिक्ट जज (पीडीजे) स्तर तक भी अक्सर नहीं पहुंच पाते। इसके परिणामस्वरूप कई प्रतिभाशाली युवा वकील सीजे के स्तर की सेवा में शामिल नहीं होते।''

इस पीठ में हैं ये जस्टिस

संविधान पीठ में जस्टिस गवई के अलावा जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस के. विनोद चंद्रन और जस्टिस जॉयमाल्या बागची शामिल हैं। पीठ ने 14 अक्टूबर को यह प्रश्न तैयार किया था- ''उच्च न्यायिक सेवाओं के संवर्ग में वरिष्ठता निर्धारित करने के लिए क्या मानदंड होना चाहिए। पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि मुख्य मुद्दे पर सुनवाई करते समय वह ''अन्य सहायक या संबंधित मुद्दों'' पर भी विचार कर सकती है।

इन पदों के लिए होना चाहिए अलग कोटा

पीठ इस बात की भी समीक्षा कर रही है कि क्या न्यायिक सेवा में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) के रूप में सबसे निचले स्तर पर नियुक्त होने वाले अधिकारियों के लिए जिला न्यायाधीश (डीजे) पदों का एक अलग कोटा निर्धारित किया जाना चाहिए ताकि उनके करियर में उन्नति के अधिक निष्पक्ष अवसर सुनिश्चित किए जा सकें। सीनियर वकील ने इस बात पर डाला प्रकाश

सीनियर वकील सिद्धार्थ भटनागर, जो पीठ को न्यायमित्र के रूप में सहायता कर रहे हैं, ने इस बात पर प्रकाश डाला कि अधिकांश राज्यों में पदोन्नति 'योग्यता की तुलना में वरिष्ठता से अधिक प्रेरित' होती है, जिसका मुख्य कारण वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (एसीआर) का मूल्यांकन करने का तरीका है।

उन्होंने कहा, ''लगभग सभी की एसीआर 'अच्छा' या 'बहुत अच्छा' के रूप में चिह्नित होती है, जिसका अर्थ है कि वरिष्ठता ही वास्तविक निर्णायक कारक बन जाती है। पदोन्नत न्यायाधीश, उम्र में बड़े होने के कारण, अक्सर अगले पदोन्नति चरण तक पहुंचने से पहले ही सेवानिवृत्त हो जाते हैं। परिणामस्वरूप संवर्ग के शीर्ष पर आमतौर पर सीधी भर्ती वाले न्यायाधीश होते हैं, जो कम उम्र के होते हैं और इसलिए लंबे समय तक पदोन्नति के पात्र बने रहते हैं।''

उन्होंने कहा कि अधिकांश उच्च न्यायालय जिला न्यायाधीशों के रूप में पदोन्नति के लिए तीन गुना अधिक न्यायाधीशों पर विचार करते हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि यदि 30 नामों पर विचार किया जा रहा है तो उनमें से 15 पदोन्नत न्यायाधीशों के और 15 सीधी भर्ती वाले न्यायाधीशों के होने चाहिए।

लेकिन न्यायमूर्ति बागची ने कहा कि आपका सुझाव वास्तव में एक संवर्ग के भीतर संवर्ग का निर्माण करेगा।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने सवाल उठाया कि क्या मौजूदा ढांचा दीवानी न्यायाधीशों को योग्यता-आधारित पदोन्नति के लिए कोई प्रोत्साहन प्रदान करता है।

न्यायाधीश ने पूछा, ''25 प्रतिशत विभागीय कोटा योग्यता को पुरस्कृत करने के लिए है। लेकिन अगर इसे केवल वरिष्ठता के आधार पर भरा जाता है, तो कड़ी मेहनत करने के लिए क्या प्रोत्साहन बचता है?''

न्यायमूर्ति बागची और न्यायमूर्ति चंद्रन ने न्यायमित्र द्वारा प्रस्तुत कुछ प्रस्तावों पर आपत्ति व्यक्त की।

न्यायमित्र ने सुझाव दिया कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए उच्च ग्रेड पर भी पदोन्नत और सीधी भर्ती वाले लोगों के बीच 1:1 का अनुपात बनाए रखा जाना चाहिए।

न्यायमूर्ति शेट्टी आयोग की रिपोर्ट का हवाला देते हुए न्यायमित्र ने तुलनात्मक आंकड़े प्रस्तुत किए, जिनमें पदोन्नत और सीधी भर्ती वाले लोगों के बीच उम्र के भारी अंतर को उजागर किया गया है।

उन्होंने कहा, ''आंध्र प्रदेश में पदोन्नत व्यक्ति की औसत आयु 48 वर्ष है, जबकि सीधी भर्ती वाले लोगों की आयु लगभग 39 वर्ष है। असम में यह 51 वर्ष बनाम 38 वर्ष है, बिहार में यह 54 वर्ष बनाम 41 वर्ष है।''

उन्होंने कहा कि दीवानी न्यायाधीश के रूप में पदभार ग्रहण करने से पहले न्यूनतम तीन वर्षों की 'प्रैक्टिस' अनिवार्य करने वाले सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद, नए नियुक्त लोगों के लिए नौकरी की शुरुआत करने की उम्र और बढ़ गई है जिससे करियर में ठहराव बढ़ गया है।

सीमित विभागीय प्रतियोगी परीक्षा (एलडीसीई) के माध्यम से जिला न्यायाधीश संवर्ग में प्रवेश पाने वाले अधिकारियों की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता विभा दत्ता मखीजा ने अपने मुवक्किलों को 'दो पाटों के बीच पिसा हुआ अनाज' बताया।

उन्होंने कहा, ''हमें पदोन्नत समूह का हिस्सा माना जाता है और इसलिए हम अपनी श्रेणी के लिए निर्धारित लाभों से वंचित हैं।''

उन्होंने अदालत से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया कि एलडीसीई अधिकारियों को पदोन्नति संरचना के भीतर एक अलग धारा के रूप में मान्यता दी जाए।

न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने आगाह किया कि प्रतियोगी परीक्षाओं पर अत्यधिक जोर 'जूनियर डिवीजन' स्तर पर 'संकट' पैदा कर सकता है, क्योंकि युवा अधिकारी मामलों के निपटारे की तुलना में पदोन्नति पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकते हैं।

न्यायाधीश की टिप्पणी से सहमति जताते हुए न्यायमित्र ने कहा, ''यदि पदोन्नति पूरी तरह से प्रतियोगी परीक्षाओं पर निर्भर करती है, तो न्यायिक अधिकारी भविष्य में उन्नति की तलाश में अपने नियमित कर्तव्यों की उपेक्षा कर सकते हैं।''

एक हस्तक्षेपकर्ता ने कहा कि बंबई उच्च न्यायालय में वर्ष 2020 से केवल सीधी भर्ती वाले जिला न्यायाधीशों को ही उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पदोन्नत करने पर विचार किया गया।

उन्होंने कहा कि पदोन्नत जिला न्यायाधीश उच्च न्यायालय में पदोन्नति के लिए विचार किए जाने से पहले ही सेवानिवृत्त हो जाते हैं। मामले में अगली सुनवाई बुधवार को होगी।

देश भर के न्यायिक अधिकारियों की वरिष्ठता और करियर में प्रगति का मुद्दा 1989 में अखिल भारतीय न्यायाधीश संघ (एआईजेए) द्वारा दायर एक याचिका में उठाया गया था।

एआईजेए की तीन दशक से भी पहले दायर की गई मूल याचिका में देश भर के न्यायिक अधिकारियों के वेतनमान, सेवा शर्तों और करियर की प्रगति में एकरूपता की मांग की गई थी।
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