छठ पूजा व्रत कथा ( Chhath Puja Vrat Katha In Hindi)
श्री जनमेजय ने वैशम्पायन से सवाल किया, दुरात्मा दुर्योधनादि द्वारा कपटरूप जुआ से परास्त पांडव जब वनवास के लिए भेजे गए तो जंगल में जाकर उन्होंने क्या किया?
वैशम्पायन जी ने कहा- हे जनमेजय ! सुनो, वे पाण्डु के पुत्र पांडव अत्यन्त दुख सागर में डूबे हुए थे और वनवास के लिए घोर जंगल में जाकर दुख और चिंता से चिन्तित होकर वन में निवास करने लगे। वहां फल-फूल खाकर पृथ्वी तल में शयन करते थे, केला और भोजपत्र का वस्त्र पहन कर दुख से दिन काटने लगे थे। राजकन्या सुख भोगने वाली पतिव्रता धर्म को पालती हुई गजगामिनी द्रौपदी भी पतियों के साथ वन चली गई थी। जिस स्थान पर द्रौपदी सहित पांडव थे, वहां पर वे ब्रह्मवेत्ता तपोरूप अट्ठासी हजार मुनि लोग पहुंच गए। ऋषियों को आते हुए देख महाराज युधिष्ठिर अत्यन्त चिंता से घबरा गए कि इन महात्माओं के भोजन के लिए क्या प्रबंध कर सकते हैं। जब युधिष्ठिर को यह चिंता हुई कि भोजनार्थं क्या उद्योग करें, तब मुख को चेष्टा मलिन किए स्वामी युधिष्ठिर को देखकर द्रौपदी बहुत दुख से व्याकुल हो गई। उसी समय द्रौपदी निज पुरोहित महाराज धौम्य को पवित्र आसन पर बैठाया और प्रदक्षिणा पूर्वक नमस्कार करके आंखों में आंसू भरकर कुल धर्म रक्षक द्रौपदी प्रेमपूर्वक गदगद वचन बोली- हे धौम्य, हे धौम्य, हे महाभाग इन दुखित पाण्डु पुत्रों को देखो। हे स्वामिन । इन लोगों के दुख को देखकर क्या आपका हृदय दुखी नहीं होता है। दुख नाशार्थ कोई व्रत मुझे बताइए, जिससे इनका क्लेश शांत हो सकते। थोड़े ही उपाय से प्रत्यक्ष महत्पुण्यं को देने वाला व्रत बताइए, जिससे हमारे स्वामी पृथ्वीतल में सुखी हो सकें। जिससे शत्रु का नाश हो, निज राज्यलक्ष्मी वापस मिलें और इस समय हमारे यहां आए हुए ब्राह्मणों को दुग्धपान करने को मिल जाए। हे महाभाग, हे महाविभो, ऐसा कोई उपाय बताइए। द्रौपदी के यह वचन सुनने के बाद वैशम्पायन जी जनमेजय जी से कहा-ब्राह्मणों में श्रेष्ठ महाराज धौम्यजी प्रसन्न होकर मुहूर्त्त मात्र ध्यान-स्थित होकर द्रौपदी से बोले- हे पाञ्चालपुत्रि। एक उत्तम व्रत को बताता हूं, जिस व्रत को पूर्व समय में नाग कन्या के उपदेश से सुकन्या ने किया था। हे महाभागे, स्त्रियों के साथ तुम अनेक विघ्नों को शांत करने वाला रवि षष्ठी व्रत करो।
द्रौपदी ने सवाल किया- हे विप्र, आपके द्वारा बताया हुआ व्रत कैसा है और उसकी विधि क्या है? इस व्रत में किसका पूजन किया जाता है और वह नाग-कन्या कौन थी और किस लिए उसने इस उत्तम व्रत को किया था। हे महाभाग, वह सुकन्या अत्याश्चर्य रूपी व्रत को करने वाली कौन थी? हे शरणागत वत्सल, मेरे इस संशय का आप निवारण करो।
द्रौपदी के प्रश्नों को सुनकर धौम्यजी ने उत्तर दिया- हे देवी, सत्ययुग में एक शर्याति नामक राजा थे, जिनकी एक हजार स्त्रियां थी, जिनसे एक ही कन्या उत्पन्न हुई थी। उस राजा की कन्या को छोड़कर दूसरा संतान न होने के कारण वह कन्या अति प्रिय थी और वह अपने पिता के घर में वृद्धि को प्राप्त होने लगी। जब कुछ समय बीत गया तो वह कन्या चन्द्रवत मुख, कमलवत नेत्र और कुम्भस्तनी होती हुई युवावस्था को प्राप्त हुई। बाल्यावस्था से ही वह कन्या अपने पिता को प्राण के समान प्रिय थी। इस पृथ्वी लोक में उसके सदृश दूसरी कोई ऐसी कन्या नहीं थी कि जिसको हमने देखा हो। इसी के चलते उसका सुकन्या नाम पड़ा। एक समय राजा शर्याति मृगया (शिकार) के लिए गए। मंत्री, सेना, बड़े-बड़े योद्धा और पुरोहित को संग में लेकर घोर जंगल में चले गए। शिकार खेलने के निमित्त राजा को जंगल में रहते हुए दस दिन हो गए। राजा शर्याति दिन में शिकार खेलने के बाद रात्रि में स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हुए जंगल में निवास करने लगे। एक समय सखियों के साथ सुकन्या फूल लेन के लिए जंगल पहुंची। वहां च्यवन मुनि का स्थान था। सुकन्या ने मुनि की देह में दीमक लगी देखकर, क्या देखती है कि मिट्टी के मध्य में मुनि के दोनों नेत्र जुगनू की तरह चमक रहे हैं, उसने विस्मित होकर उनकी दोनों आंखें फोड़ दी। तब मुनि के नेत्रों से रुधिर की धारा बहने लगी और वह चकोराक्षी सुकन्या फूलों को लेकर सखियों के साथ घर चली गई। च्यवन मुनि के नेत्र सुकन्या द्वारा जो फोड़ दिये गए इससे राजा और सेना का मल-मूत्र आदि सब बंद हो गया और सभी ने हाहाकार करना शुरू कर दिया। जब तीन दिन और रात व्यतीत हो गई तो व्याकुल होकर अपने पुरोहित से राजा ने पूछा- हे मुनिसत्तम। किस लिए हमारा मल-मूत्र बंद हो गया यह आप दिव्य दृष्टि से देखकर बताइए।
पुरोहित जी ने बताया- हे राजन, भार्गववंशी च्यवन नामक एक ऋषि इस वन में घोर तपस्या कर रहे हैं। जिनके शरीर में दीमक लगकर मांस खा गए हैं और हड्डी मात्र मिट्टी से लिपटी हुई है। हे राजन, आपकी कन्या ने अज्ञानतावश उन महाराज के दोनों नेत्र कांटों से फोड़ दिए हैं, जिससे रुधिर बह रहा है। उन्हीं के क्रोध से यह कष्ट हुआ है। हे राजन, अब आप उनको प्रसन्न कीजिए और अपनी कन्या को उन्हें दे दीजिये। कन्या-दान से यह मुनि च्यवन जी प्रसन्न हो उठेंगे। पुरोहित के वचन सुनने के पश्चात राजा शर्याति सुकन्या को अपने साथ लेकर ऋषि के पास गए और जल छोड़ने पर हड्डी मात्र के दर्शन हुए। नेत्र-हीन ऋषि को देखकर राजा बोले- हे प्रभो, मेरी कन्या से अनजाने में यह अपराध हो गया है जिससे आपके ये नेत्र फूट गए। हे मुनिवर्य, आपकी सेवा के हेतु हम अपनी कन्या आपको सौंप रहे हैं। जिसमें आपको कष्ट न हो। राजा के वचन सुनकर ऋषि जी बड़े प्रसन्न हो गए और उसी समय राजा शर्याति ने सुकन्या को ऋषि के लिए दान कर दिया। राजा से कन्या पाकर मुनि अति प्रसन्न हो गए और उनका क्रोध शांत हो गया। तब राजा को मल मूत्र हुआ और सेना सहित प्रसन्न चित्त राजा अपने देश को चले गए। वहां, सुकन्या नेत्रहीन च्यवनजी की सेवा करने लगी।
सुकन्या कार्तिक मास में एक दिन जल हेतु पुष्करिणी (छोटे तालाब) में गई, वहां उसने अनेक आभूषणों से युक्त नाग कन्या को देखा। श्रीकश्यप जी के यज्ञ मण्डप में सूर्य भगवान का पूजन करती हुई नाग कन्या को देखकर सुकन्या धीरे से उनके पास गई और पूछा कि हे महाभागे, आप क्या करती हैं? किस कारण यहां पर आई हैं? सुकन्या के इस वचन को सुनकर नाग कन्या बोली- हे साध्वि मैं नाग कन्या हूं, व्रत धारण कर कश्यप जी के पूजनार्थ यहां आई हूं। सुकन्या बोली- इस व्रत और पूजा का क्या प्रभाव है और क्या फल है? इसकी पूजा की विधि क्या है? किस महीने और किस तारीख को इस उत्तम व्रत को किया जाता है।। नाग कन्या ने बताया- कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सप्तमी युक्त होकर सर्वमनोरच सिद्धि के लिए इस व्रत को किया जाता है। व्रती को पंचमी के दिन नियम से व्रत को धारण करना चाहिए। शाम के वक्त में खीर का भोजन करके पृथ्वी पर सोना चाहिए। छठ के दिन व्रत रहे। दिन में चार रंगों से सुशोभित मंडप में सूर्य नारायण की पूजन करें और रात में जागरण करे। अनेक प्रकार के फल और पकवान आदि का नैवेद्य और सूर्य नारायण की प्रीति के लिए गीत-वाद्य आदि से गा-बजाकर उत्सव मनाना चाहिए।
जब तक सूर्य नारायण के दर्शन न हो जाएं तब तक व्रत धारण किए रखना चाहिए। सुबह के समय सप्तमी को सूर्य नारायण के दर्शन करके अर्घ्य दें। दूध, नारियल, कदली फल, पुष्प चंदन से सूर्य के बारह नामों उच्चारण करते हुए और प्रत्येक नाम से दण्डवत प्रणाम करते हुए अर्घ्य दें। 'जगत के सविता, जगत् के नेत्र, जगत के उत्पत्ति-पालन-नाश के हेतु त्रिगुण रूप, त्रिगुणात्मा, ब्रह्मा, विष्णु, शिव रूप सूर्य नारायण को नमस्कार है।' इस प्रकार इस व्रत को करने से सूर्यनारायण महा घोर कष्ट को दूर करके मनोवांछित फल देते हैं। हे सुव्रते, मैंने यह रवि षष्ठी व्रत तुमसे कहा है। श्री धौम्य जी ने कहा- हे द्रौपदी, नाग-कन्या के इस वचन को सुनने के बाद सुकन्या ने इस उत्तम व्रत को किया। इसी व्रत के प्रभाव से च्यवन महाराज के नेत्र पुनः पूर्ववत् हो गए। वह ऋषि होकर सुख भोगने लग गए। इससे हे पाञ्चालनन्दिनी, तुम भी इस उत्तम व्रत को करके देखो। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे पति पुनः राज्यलक्ष्मी को पाएंगे और निःसन्देह तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा।
द्रौपदी ने धौम्य महाराज की आज्ञा से इस यथाविधि व्रत किया तो युधिष्ठिरजी ने अतिथि रूप में आए हुए ब्राह्मणों को भोजन देकर प्रणाम किया। वैशम्पायन जी ने कहा- हे जनमेजय, धौम्यजी से इस उत्तम व्रत को जानने के बाद द्रौपदी ने इसे किया और इसके प्रभाव से द्रौपदी पांडवों के साथ पुनः राज्यलक्ष्मी को प्राप्त हुई। जो भी स्त्री इस पुनीत व्रत को करेगी उसके समस्त पाप नाश होंगे और सुकन्या की तरह पति सहित सुख को प्राप्त करेगी। इस व्रत का विधिवत उद्यापन करें, विधि-विधान से प्रत्येक साल व्रत करते हुए कथा को सुनें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दे तो उसका मनोरथ सिद्ध हो जाता है। जो भक्ति भाव से इस कथा को सुनता है, उसे पुत्र, पौत्र, धन-संपत्ति तथा अक्षय सुख प्राप्त होता है। इस प्रकार कथा को सुनकर सूर्य नारायण को अर्घ्य देकर नमस्कार करते हुए श्रोता निज-निज घर को जावें।
श्री जनमेजय ने वैशम्पायन से सवाल किया, दुरात्मा दुर्योधनादि द्वारा कपटरूप जुआ से परास्त पांडव जब वनवास के लिए भेजे गए तो जंगल में जाकर उन्होंने क्या किया?
वैशम्पायन जी ने कहा- हे जनमेजय ! सुनो, वे पाण्डु के पुत्र पांडव अत्यन्त दुख सागर में डूबे हुए थे और वनवास के लिए घोर जंगल में जाकर दुख और चिंता से चिन्तित होकर वन में निवास करने लगे। वहां फल-फूल खाकर पृथ्वी तल में शयन करते थे, केला और भोजपत्र का वस्त्र पहन कर दुख से दिन काटने लगे थे। राजकन्या सुख भोगने वाली पतिव्रता धर्म को पालती हुई गजगामिनी द्रौपदी भी पतियों के साथ वन चली गई थी। जिस स्थान पर द्रौपदी सहित पांडव थे, वहां पर वे ब्रह्मवेत्ता तपोरूप अट्ठासी हजार मुनि लोग पहुंच गए। ऋषियों को आते हुए देख महाराज युधिष्ठिर अत्यन्त चिंता से घबरा गए कि इन महात्माओं के भोजन के लिए क्या प्रबंध कर सकते हैं। जब युधिष्ठिर को यह चिंता हुई कि भोजनार्थं क्या उद्योग करें, तब मुख को चेष्टा मलिन किए स्वामी युधिष्ठिर को देखकर द्रौपदी बहुत दुख से व्याकुल हो गई। उसी समय द्रौपदी निज पुरोहित महाराज धौम्य को पवित्र आसन पर बैठाया और प्रदक्षिणा पूर्वक नमस्कार करके आंखों में आंसू भरकर कुल धर्म रक्षक द्रौपदी प्रेमपूर्वक गदगद वचन बोली- हे धौम्य, हे धौम्य, हे महाभाग इन दुखित पाण्डु पुत्रों को देखो। हे स्वामिन । इन लोगों के दुख को देखकर क्या आपका हृदय दुखी नहीं होता है। दुख नाशार्थ कोई व्रत मुझे बताइए, जिससे इनका क्लेश शांत हो सकते। थोड़े ही उपाय से प्रत्यक्ष महत्पुण्यं को देने वाला व्रत बताइए, जिससे हमारे स्वामी पृथ्वीतल में सुखी हो सकें। जिससे शत्रु का नाश हो, निज राज्यलक्ष्मी वापस मिलें और इस समय हमारे यहां आए हुए ब्राह्मणों को दुग्धपान करने को मिल जाए। हे महाभाग, हे महाविभो, ऐसा कोई उपाय बताइए। द्रौपदी के यह वचन सुनने के बाद वैशम्पायन जी जनमेजय जी से कहा-ब्राह्मणों में श्रेष्ठ महाराज धौम्यजी प्रसन्न होकर मुहूर्त्त मात्र ध्यान-स्थित होकर द्रौपदी से बोले- हे पाञ्चालपुत्रि। एक उत्तम व्रत को बताता हूं, जिस व्रत को पूर्व समय में नाग कन्या के उपदेश से सुकन्या ने किया था। हे महाभागे, स्त्रियों के साथ तुम अनेक विघ्नों को शांत करने वाला रवि षष्ठी व्रत करो।
द्रौपदी ने सवाल किया- हे विप्र, आपके द्वारा बताया हुआ व्रत कैसा है और उसकी विधि क्या है? इस व्रत में किसका पूजन किया जाता है और वह नाग-कन्या कौन थी और किस लिए उसने इस उत्तम व्रत को किया था। हे महाभाग, वह सुकन्या अत्याश्चर्य रूपी व्रत को करने वाली कौन थी? हे शरणागत वत्सल, मेरे इस संशय का आप निवारण करो।
द्रौपदी के प्रश्नों को सुनकर धौम्यजी ने उत्तर दिया- हे देवी, सत्ययुग में एक शर्याति नामक राजा थे, जिनकी एक हजार स्त्रियां थी, जिनसे एक ही कन्या उत्पन्न हुई थी। उस राजा की कन्या को छोड़कर दूसरा संतान न होने के कारण वह कन्या अति प्रिय थी और वह अपने पिता के घर में वृद्धि को प्राप्त होने लगी। जब कुछ समय बीत गया तो वह कन्या चन्द्रवत मुख, कमलवत नेत्र और कुम्भस्तनी होती हुई युवावस्था को प्राप्त हुई। बाल्यावस्था से ही वह कन्या अपने पिता को प्राण के समान प्रिय थी। इस पृथ्वी लोक में उसके सदृश दूसरी कोई ऐसी कन्या नहीं थी कि जिसको हमने देखा हो। इसी के चलते उसका सुकन्या नाम पड़ा। एक समय राजा शर्याति मृगया (शिकार) के लिए गए। मंत्री, सेना, बड़े-बड़े योद्धा और पुरोहित को संग में लेकर घोर जंगल में चले गए। शिकार खेलने के निमित्त राजा को जंगल में रहते हुए दस दिन हो गए। राजा शर्याति दिन में शिकार खेलने के बाद रात्रि में स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते हुए जंगल में निवास करने लगे। एक समय सखियों के साथ सुकन्या फूल लेन के लिए जंगल पहुंची। वहां च्यवन मुनि का स्थान था। सुकन्या ने मुनि की देह में दीमक लगी देखकर, क्या देखती है कि मिट्टी के मध्य में मुनि के दोनों नेत्र जुगनू की तरह चमक रहे हैं, उसने विस्मित होकर उनकी दोनों आंखें फोड़ दी। तब मुनि के नेत्रों से रुधिर की धारा बहने लगी और वह चकोराक्षी सुकन्या फूलों को लेकर सखियों के साथ घर चली गई। च्यवन मुनि के नेत्र सुकन्या द्वारा जो फोड़ दिये गए इससे राजा और सेना का मल-मूत्र आदि सब बंद हो गया और सभी ने हाहाकार करना शुरू कर दिया। जब तीन दिन और रात व्यतीत हो गई तो व्याकुल होकर अपने पुरोहित से राजा ने पूछा- हे मुनिसत्तम। किस लिए हमारा मल-मूत्र बंद हो गया यह आप दिव्य दृष्टि से देखकर बताइए।
पुरोहित जी ने बताया- हे राजन, भार्गववंशी च्यवन नामक एक ऋषि इस वन में घोर तपस्या कर रहे हैं। जिनके शरीर में दीमक लगकर मांस खा गए हैं और हड्डी मात्र मिट्टी से लिपटी हुई है। हे राजन, आपकी कन्या ने अज्ञानतावश उन महाराज के दोनों नेत्र कांटों से फोड़ दिए हैं, जिससे रुधिर बह रहा है। उन्हीं के क्रोध से यह कष्ट हुआ है। हे राजन, अब आप उनको प्रसन्न कीजिए और अपनी कन्या को उन्हें दे दीजिये। कन्या-दान से यह मुनि च्यवन जी प्रसन्न हो उठेंगे। पुरोहित के वचन सुनने के पश्चात राजा शर्याति सुकन्या को अपने साथ लेकर ऋषि के पास गए और जल छोड़ने पर हड्डी मात्र के दर्शन हुए। नेत्र-हीन ऋषि को देखकर राजा बोले- हे प्रभो, मेरी कन्या से अनजाने में यह अपराध हो गया है जिससे आपके ये नेत्र फूट गए। हे मुनिवर्य, आपकी सेवा के हेतु हम अपनी कन्या आपको सौंप रहे हैं। जिसमें आपको कष्ट न हो। राजा के वचन सुनकर ऋषि जी बड़े प्रसन्न हो गए और उसी समय राजा शर्याति ने सुकन्या को ऋषि के लिए दान कर दिया। राजा से कन्या पाकर मुनि अति प्रसन्न हो गए और उनका क्रोध शांत हो गया। तब राजा को मल मूत्र हुआ और सेना सहित प्रसन्न चित्त राजा अपने देश को चले गए। वहां, सुकन्या नेत्रहीन च्यवनजी की सेवा करने लगी।
सुकन्या कार्तिक मास में एक दिन जल हेतु पुष्करिणी (छोटे तालाब) में गई, वहां उसने अनेक आभूषणों से युक्त नाग कन्या को देखा। श्रीकश्यप जी के यज्ञ मण्डप में सूर्य भगवान का पूजन करती हुई नाग कन्या को देखकर सुकन्या धीरे से उनके पास गई और पूछा कि हे महाभागे, आप क्या करती हैं? किस कारण यहां पर आई हैं? सुकन्या के इस वचन को सुनकर नाग कन्या बोली- हे साध्वि मैं नाग कन्या हूं, व्रत धारण कर कश्यप जी के पूजनार्थ यहां आई हूं। सुकन्या बोली- इस व्रत और पूजा का क्या प्रभाव है और क्या फल है? इसकी पूजा की विधि क्या है? किस महीने और किस तारीख को इस उत्तम व्रत को किया जाता है।। नाग कन्या ने बताया- कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सप्तमी युक्त होकर सर्वमनोरच सिद्धि के लिए इस व्रत को किया जाता है। व्रती को पंचमी के दिन नियम से व्रत को धारण करना चाहिए। शाम के वक्त में खीर का भोजन करके पृथ्वी पर सोना चाहिए। छठ के दिन व्रत रहे। दिन में चार रंगों से सुशोभित मंडप में सूर्य नारायण की पूजन करें और रात में जागरण करे। अनेक प्रकार के फल और पकवान आदि का नैवेद्य और सूर्य नारायण की प्रीति के लिए गीत-वाद्य आदि से गा-बजाकर उत्सव मनाना चाहिए।
जब तक सूर्य नारायण के दर्शन न हो जाएं तब तक व्रत धारण किए रखना चाहिए। सुबह के समय सप्तमी को सूर्य नारायण के दर्शन करके अर्घ्य दें। दूध, नारियल, कदली फल, पुष्प चंदन से सूर्य के बारह नामों उच्चारण करते हुए और प्रत्येक नाम से दण्डवत प्रणाम करते हुए अर्घ्य दें। 'जगत के सविता, जगत् के नेत्र, जगत के उत्पत्ति-पालन-नाश के हेतु त्रिगुण रूप, त्रिगुणात्मा, ब्रह्मा, विष्णु, शिव रूप सूर्य नारायण को नमस्कार है।' इस प्रकार इस व्रत को करने से सूर्यनारायण महा घोर कष्ट को दूर करके मनोवांछित फल देते हैं। हे सुव्रते, मैंने यह रवि षष्ठी व्रत तुमसे कहा है। श्री धौम्य जी ने कहा- हे द्रौपदी, नाग-कन्या के इस वचन को सुनने के बाद सुकन्या ने इस उत्तम व्रत को किया। इसी व्रत के प्रभाव से च्यवन महाराज के नेत्र पुनः पूर्ववत् हो गए। वह ऋषि होकर सुख भोगने लग गए। इससे हे पाञ्चालनन्दिनी, तुम भी इस उत्तम व्रत को करके देखो। इस व्रत के प्रभाव से तुम्हारे पति पुनः राज्यलक्ष्मी को पाएंगे और निःसन्देह तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा।
द्रौपदी ने धौम्य महाराज की आज्ञा से इस यथाविधि व्रत किया तो युधिष्ठिरजी ने अतिथि रूप में आए हुए ब्राह्मणों को भोजन देकर प्रणाम किया। वैशम्पायन जी ने कहा- हे जनमेजय, धौम्यजी से इस उत्तम व्रत को जानने के बाद द्रौपदी ने इसे किया और इसके प्रभाव से द्रौपदी पांडवों के साथ पुनः राज्यलक्ष्मी को प्राप्त हुई। जो भी स्त्री इस पुनीत व्रत को करेगी उसके समस्त पाप नाश होंगे और सुकन्या की तरह पति सहित सुख को प्राप्त करेगी। इस व्रत का विधिवत उद्यापन करें, विधि-विधान से प्रत्येक साल व्रत करते हुए कथा को सुनें, ब्राह्मणों को दक्षिणा दे तो उसका मनोरथ सिद्ध हो जाता है। जो भक्ति भाव से इस कथा को सुनता है, उसे पुत्र, पौत्र, धन-संपत्ति तथा अक्षय सुख प्राप्त होता है। इस प्रकार कथा को सुनकर सूर्य नारायण को अर्घ्य देकर नमस्कार करते हुए श्रोता निज-निज घर को जावें।
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