कभी ग्राम पंचायत तो कभी ग्राम चिकित्सालय, शुरुआत में शहरी युवा पीढ़ी को टारगेट मानने वाले ओटीटी पर इन दिनों भारत की पहचान यानी गांवों की धमक दिखाई दे रही है। वेब सीरीज पंचायत के तीन हिट सीजन के बाद हाल ही में ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बने दुपहिया और ग्राम चिकित्सालय जैसे शोज इसकी नजीर हैं। इस बदलते ट्रेंड पर एक खास रिपोर्ट:
बड़े पर्दे पर घूंघट ओढ़े आईं सूरजमुखी गांव की मासूम 'लापता लेडीज' ने खूब दिल जीते, तो ओटीटी पर फुलेरा ग्राम 'पंचायत' का भौकाल कम होने का नाम ही नहीं हो रहा। यही वजह है कि कभी विदेशी नजारों के पीछे भागने वाले निर्माता इन दिनों गांव-खेड़े की आड़ी-टेढ़ी गलियों और वहां के भोले-भाले किरदारों में नयापन तलाश रहे हैं। खासकर, ओटीटी पर तो हाल ही में गंवई पृष्ठभूमि पर जिस तरह एक के बाद एक दुपहिया और ग्राम चिकित्सालय जैसी सीरीज आई हैं, उससे लगता है कि कभी शहरी युवा पीढ़ी को टारगेट करने वाला यह माध्यम अब 'इंडिया' नहीं, 'भारत' के दर्शकों के बीच पैठ बनाना चाहता है। इसके लिए, मेकर्स उत्तर भारत के गांवों में ही नहीं, बल्कि नॉर्थ ईस्ट जैसी कम देखी-दिखाई गई लोक-संस्कृति में भी कहानियां पिरो रहे हैं।
गांव वाली 'पंचायत' ने बढ़ाई गांव की शानगांवों का देश कहे जाने वाले भारतीय सिनेमा से एक बीच में गांव लगभग गायब से हो गए थे। मेकर्स विदेशी लोकेशंस के पीछे भाग रहे थे, वहीं छोटे शहरों की कहानियों का दौर चला तो सबको नवाबों की नगरी लखनऊ सुहाने लगी, लेकिन ओटीटी पर गांव की मिट्टी की सोंधी महक लिए आई वेब सीरीज पंचायत की सफलता ने इंडस्ट्री वालों को फिर गांव की ओर लौटने पर मजबूर किया है। इसका ताजा उदाहरण हाल ही में आए दुपहिया और ग्राम चिकित्सालय जैसे ग्रामीण मिट्टी में रचे-बसे शोज हैं। अचानक इन ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली कहानियों की आमद बढ़ने की वजह पर पंचायत के लेखक चंदन कुमार कहते हैं, 'भारत बहुत बड़ा देश है। उस पर, इंटरनेट ने जिस तरह पूरे देश को भेदा है, आप इंस्टाग्राम पर देखिए, कितना लोकलाइज कॉन्टेंट चल रहा है। कोई गोरखपुर में रील बना रहा है और दिल्ली-मुंबई में लोग देख रहे हैं। फिर पंचायत से एक बैरियर भी टूटा कि भई, ऐसे कॉन्टेंट चलते हैं। लोगों का स्वाद अब बदला है। वे हर तरह की चीजें देखना चाहते हैं। फिर, जब लैंडस्केप बदलता है तो कहानी में एक नयापन दिखता है, जो लोग पसंद करते हैं। यही बात गांव की कहानियों वाले शोज पर भी लागू होती है।'
नॉर्थ से नॉर्थ-ईस्ट तक तलाश रहे नयापनशोज को ताजगी देने लिए मेकर्स उत्तर भारत के गांव ही नहीं, बंगाल और नॉर्थ-ईस्ट की कम प्रचलित लोक संस्कृति में भी कहानियां बुन रहे हैं। यही नहीं, इन शोज को रियलिस्टिक बनाने के लिए वे वहां की बोली-बानी और क्षेत्रीय कलाकारों को वरीयता दे रहे हैं। जैसे, हिट सीरीज पाताल लोक के दूसरे सीजन का उदाहरण लीजिए। नागालैंड पहुंची इस कहानी को मौलिक बनाने के लिए मेकर्स ने जहानु बरुआ, प्रशांत तमांग, रोकिबुल हुसैन, मेरेनला, केनी बसुमतरी जैसे ज्यादातर ऐक्टर्स नॉर्थ ईस्ट के चुने, वहीं काफी सारे डायलॉग्स भी नागालैंड की क्षेत्रीय भाषा नागामी में रखे, जो सीरीज का खास आकर्षण बने। इसी तरह, फिल्ममेकर नीरज पांडे की चर्चित सीरीज खाकी: द बंगाल चैप्टर में बंगाल के रियल लोकेशंस, बंगाली डायलॉग और जीत, प्रोसेनजीत चटर्जी, सास्वत चटर्जी, परमव्रत चटर्जी जैसे नामी बांग्ला कलाकारों की उपस्थिति ने सीरीज को ताजगी दी। खाकी: द बंगाल चैप्टर के निर्देशक देबात्मा मंडल कहते हैं, 'हमारी शुरू से यही सोच थी कि शो को हाइपर लोकल रखना है, ताकि दर्शकों को सच में लगे कि वे कोलकाता में हैं। इसलिए, हमारी जरूरत थी कि हम बंगाली ऐक्टर को लें और बंगाल को एक्सप्लोर करें। यह हमारी सोची-समझी कोशिश थी कि कोलकाता को रियल तरीके से दिखाया जाए, जो ज्यादा रिफ्रेशिंग और नया लगे।'
बस भेड़चाल ना हो जाए शुरूइंडस्ट्री में आम चलन रहा है कि जो चीज चल जाती है, सभी उसी के पीछे भागने लगते हैं। ऐसे में, गांव वाली कहानियों के नुस्खे के पीछे भी कहीं यही भेड़चाल तो नहीं, इस पर चंदन कुमार का कहना है, 'यह भेड़चाल लग सकता है, मगर मेरे हिसाब से इसे नए लैंडस्केप खुलने के तौर पर देखना चाहिए। एक वक्त पर आप केवल शहरों की कहानी दिखा रहे थे, धीरे-धीरे वो कैनवास बढ़ रहा है। भारत वैसे भी गांवों का देश है। शहर से ज्यादा लोग ग्रामीण क्षेत्राें में रहता है तो उस ऑडियंस के लिए शोज आते ही रहेंगे। बाकी, यह तो होता ही है कि जब कोई चीज चल जाती है तो लोग वैसा देखना चाहते हैं। यह डिमांड और सप्लाई वाला खेल है। आप किसी का हाथ पकड़कर रोक तो सकते नहीं हैं। जो जॉनर चलता है, सब उसमें हाथ आजमाना चाहते हैं, तो दस चीजें बनेंगी, उसमें जो दो अच्छी होंगी वो चलेंगी। बाकी खुद छंट जाएंगी। मार्केट से रिस्पॉन्स मिलना बंद हो जाएगा तो अपने आप इसमें कोर्स करेक्शन होने लगेगा। अभी दुपहिया, पंचायत, ग्राम चिकित्सालय सब कॉमिडी के जोन में हैं, इसलिए ये एक जैसी लग रही हैं, मगर आगे इस पृष्ठभूमि की अलग-अलग कॉन्फ्लिक्ट की कहानियां आएंगी तो ऐसा नहीं लगेगा।'
बड़े पर्दे पर भी हिट रहे हैं गांवबड़े पर्दे पर भी गांव की कहानियां खूब पसंद की गई हैं। लापता लेडीज के निर्माता आमिर खान इससे पहले ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली फिल्म लगान और पीपली लाइव के जरिए भी धूम मचा चुके हैं। शाहरुख खान की स्वदेश की चर्चा आज भी होती है। विधु विनोद चोपड़ा की बहुचर्चित फिल्म 12वीं फेल में भी गांव अपने असल रूप में पर्दे पर दिखा। वहीं, समय-समय पर वेलकम टू सज्जनपुर, गैंग्स ऑफ वासेपुर, इश्किया, पटाखा, पान सिंह तोमर जैसी फिल्मों में भी गांव के सादा-जनजीवन ने दर्शकों को लुभाया है।
एक ही चेहरे देखकर बोर हो गए लोगहमारी फिल्मों और शोज में विविधता की बहुत जरूरत है। बहुत जरूरी है कि हम अलग-अलग चेहरे देखें। लोग बोर हो गए हैं, वही चेहरे और एक ही तरह की फिल्में देखकर। यह हमारी खुशनसीबी है कि हमारे देश में इतनी विविधता है, तो हमें उसका इस्तेमाल करना चाहिए। - चित्रांगदा सिंह, ऐक्ट्रेस, खाकी: द बंगाल चैप्टर
बढ़ रहा है कहानियों का फलकएक वक्त पर आप केवल शहरों की कहानी दिखा रहे थे, धीरे-धीरे वो कैनवास बढ़ रहा है। भारत वैसे भी गांवों का देश है। शहर से ज्यादा लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है तो उस ऑडियंस के लिए शोज आते ही रहेंगे। - चंदन कुमार, राइटर, पंचायत
बड़े पर्दे पर घूंघट ओढ़े आईं सूरजमुखी गांव की मासूम 'लापता लेडीज' ने खूब दिल जीते, तो ओटीटी पर फुलेरा ग्राम 'पंचायत' का भौकाल कम होने का नाम ही नहीं हो रहा। यही वजह है कि कभी विदेशी नजारों के पीछे भागने वाले निर्माता इन दिनों गांव-खेड़े की आड़ी-टेढ़ी गलियों और वहां के भोले-भाले किरदारों में नयापन तलाश रहे हैं। खासकर, ओटीटी पर तो हाल ही में गंवई पृष्ठभूमि पर जिस तरह एक के बाद एक दुपहिया और ग्राम चिकित्सालय जैसी सीरीज आई हैं, उससे लगता है कि कभी शहरी युवा पीढ़ी को टारगेट करने वाला यह माध्यम अब 'इंडिया' नहीं, 'भारत' के दर्शकों के बीच पैठ बनाना चाहता है। इसके लिए, मेकर्स उत्तर भारत के गांवों में ही नहीं, बल्कि नॉर्थ ईस्ट जैसी कम देखी-दिखाई गई लोक-संस्कृति में भी कहानियां पिरो रहे हैं।
गांव वाली 'पंचायत' ने बढ़ाई गांव की शानगांवों का देश कहे जाने वाले भारतीय सिनेमा से एक बीच में गांव लगभग गायब से हो गए थे। मेकर्स विदेशी लोकेशंस के पीछे भाग रहे थे, वहीं छोटे शहरों की कहानियों का दौर चला तो सबको नवाबों की नगरी लखनऊ सुहाने लगी, लेकिन ओटीटी पर गांव की मिट्टी की सोंधी महक लिए आई वेब सीरीज पंचायत की सफलता ने इंडस्ट्री वालों को फिर गांव की ओर लौटने पर मजबूर किया है। इसका ताजा उदाहरण हाल ही में आए दुपहिया और ग्राम चिकित्सालय जैसे ग्रामीण मिट्टी में रचे-बसे शोज हैं। अचानक इन ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली कहानियों की आमद बढ़ने की वजह पर पंचायत के लेखक चंदन कुमार कहते हैं, 'भारत बहुत बड़ा देश है। उस पर, इंटरनेट ने जिस तरह पूरे देश को भेदा है, आप इंस्टाग्राम पर देखिए, कितना लोकलाइज कॉन्टेंट चल रहा है। कोई गोरखपुर में रील बना रहा है और दिल्ली-मुंबई में लोग देख रहे हैं। फिर पंचायत से एक बैरियर भी टूटा कि भई, ऐसे कॉन्टेंट चलते हैं। लोगों का स्वाद अब बदला है। वे हर तरह की चीजें देखना चाहते हैं। फिर, जब लैंडस्केप बदलता है तो कहानी में एक नयापन दिखता है, जो लोग पसंद करते हैं। यही बात गांव की कहानियों वाले शोज पर भी लागू होती है।'
नॉर्थ से नॉर्थ-ईस्ट तक तलाश रहे नयापनशोज को ताजगी देने लिए मेकर्स उत्तर भारत के गांव ही नहीं, बंगाल और नॉर्थ-ईस्ट की कम प्रचलित लोक संस्कृति में भी कहानियां बुन रहे हैं। यही नहीं, इन शोज को रियलिस्टिक बनाने के लिए वे वहां की बोली-बानी और क्षेत्रीय कलाकारों को वरीयता दे रहे हैं। जैसे, हिट सीरीज पाताल लोक के दूसरे सीजन का उदाहरण लीजिए। नागालैंड पहुंची इस कहानी को मौलिक बनाने के लिए मेकर्स ने जहानु बरुआ, प्रशांत तमांग, रोकिबुल हुसैन, मेरेनला, केनी बसुमतरी जैसे ज्यादातर ऐक्टर्स नॉर्थ ईस्ट के चुने, वहीं काफी सारे डायलॉग्स भी नागालैंड की क्षेत्रीय भाषा नागामी में रखे, जो सीरीज का खास आकर्षण बने। इसी तरह, फिल्ममेकर नीरज पांडे की चर्चित सीरीज खाकी: द बंगाल चैप्टर में बंगाल के रियल लोकेशंस, बंगाली डायलॉग और जीत, प्रोसेनजीत चटर्जी, सास्वत चटर्जी, परमव्रत चटर्जी जैसे नामी बांग्ला कलाकारों की उपस्थिति ने सीरीज को ताजगी दी। खाकी: द बंगाल चैप्टर के निर्देशक देबात्मा मंडल कहते हैं, 'हमारी शुरू से यही सोच थी कि शो को हाइपर लोकल रखना है, ताकि दर्शकों को सच में लगे कि वे कोलकाता में हैं। इसलिए, हमारी जरूरत थी कि हम बंगाली ऐक्टर को लें और बंगाल को एक्सप्लोर करें। यह हमारी सोची-समझी कोशिश थी कि कोलकाता को रियल तरीके से दिखाया जाए, जो ज्यादा रिफ्रेशिंग और नया लगे।'
बस भेड़चाल ना हो जाए शुरूइंडस्ट्री में आम चलन रहा है कि जो चीज चल जाती है, सभी उसी के पीछे भागने लगते हैं। ऐसे में, गांव वाली कहानियों के नुस्खे के पीछे भी कहीं यही भेड़चाल तो नहीं, इस पर चंदन कुमार का कहना है, 'यह भेड़चाल लग सकता है, मगर मेरे हिसाब से इसे नए लैंडस्केप खुलने के तौर पर देखना चाहिए। एक वक्त पर आप केवल शहरों की कहानी दिखा रहे थे, धीरे-धीरे वो कैनवास बढ़ रहा है। भारत वैसे भी गांवों का देश है। शहर से ज्यादा लोग ग्रामीण क्षेत्राें में रहता है तो उस ऑडियंस के लिए शोज आते ही रहेंगे। बाकी, यह तो होता ही है कि जब कोई चीज चल जाती है तो लोग वैसा देखना चाहते हैं। यह डिमांड और सप्लाई वाला खेल है। आप किसी का हाथ पकड़कर रोक तो सकते नहीं हैं। जो जॉनर चलता है, सब उसमें हाथ आजमाना चाहते हैं, तो दस चीजें बनेंगी, उसमें जो दो अच्छी होंगी वो चलेंगी। बाकी खुद छंट जाएंगी। मार्केट से रिस्पॉन्स मिलना बंद हो जाएगा तो अपने आप इसमें कोर्स करेक्शन होने लगेगा। अभी दुपहिया, पंचायत, ग्राम चिकित्सालय सब कॉमिडी के जोन में हैं, इसलिए ये एक जैसी लग रही हैं, मगर आगे इस पृष्ठभूमि की अलग-अलग कॉन्फ्लिक्ट की कहानियां आएंगी तो ऐसा नहीं लगेगा।'
बड़े पर्दे पर भी हिट रहे हैं गांवबड़े पर्दे पर भी गांव की कहानियां खूब पसंद की गई हैं। लापता लेडीज के निर्माता आमिर खान इससे पहले ग्रामीण पृष्ठभूमि वाली फिल्म लगान और पीपली लाइव के जरिए भी धूम मचा चुके हैं। शाहरुख खान की स्वदेश की चर्चा आज भी होती है। विधु विनोद चोपड़ा की बहुचर्चित फिल्म 12वीं फेल में भी गांव अपने असल रूप में पर्दे पर दिखा। वहीं, समय-समय पर वेलकम टू सज्जनपुर, गैंग्स ऑफ वासेपुर, इश्किया, पटाखा, पान सिंह तोमर जैसी फिल्मों में भी गांव के सादा-जनजीवन ने दर्शकों को लुभाया है।
एक ही चेहरे देखकर बोर हो गए लोगहमारी फिल्मों और शोज में विविधता की बहुत जरूरत है। बहुत जरूरी है कि हम अलग-अलग चेहरे देखें। लोग बोर हो गए हैं, वही चेहरे और एक ही तरह की फिल्में देखकर। यह हमारी खुशनसीबी है कि हमारे देश में इतनी विविधता है, तो हमें उसका इस्तेमाल करना चाहिए। - चित्रांगदा सिंह, ऐक्ट्रेस, खाकी: द बंगाल चैप्टर
बढ़ रहा है कहानियों का फलकएक वक्त पर आप केवल शहरों की कहानी दिखा रहे थे, धीरे-धीरे वो कैनवास बढ़ रहा है। भारत वैसे भी गांवों का देश है। शहर से ज्यादा लोग ग्रामीण क्षेत्रों में रहता है तो उस ऑडियंस के लिए शोज आते ही रहेंगे। - चंदन कुमार, राइटर, पंचायत
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