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जम्मू-कश्मीर: शोक का मौका या प्रचार का हथकंडा?

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शहीद दिवस पर श्रीनगर में हुए तमाशे ने सूबे की राजनीति को लेकर संशय और बढ़ा दिया। शहीद दिवस कश्मीर घाटी में हर साल 13 जुलाई को उन 22 कश्मीरियों की याद में मनाया जाता है, जिनमें सभी मुसलमान थे और जिन्हें 1931 में श्रीनगर में डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह की सेना ने गोली मार दी थी। ‘सम्मान’ और ‘विरोध’ का जैसा अतिरंजित प्रदर्शन उस दिन दिखा, तमाम कश्मीरी ही नहीं, मुख्यधारा के राजनेता भी हताश नजर आए।

डोगरा शासकों के पक्ष में खड़ी बीजेपी की नजर में वे ‘देशद्रोही’ थे और जम्मू-कश्मीर के विशेष और राज्य का दर्जा रद्द करने तथा 2019 में इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में विभाजित करने के बाद उसने 2020 में राजपत्रित छुट्टियों की सूची से शहीद दिवस को हटा भी दिया था। इस साल, उपराज्यपाल कार्यालय के निर्देश पर श्रीनगर जिला प्रशासन ने शहीदों की बरसी पर राजनीतिक दलों को श्रीनगर के नौहट्टा में नक्शबंद साहिब दरगाह स्थित मजार-ए-शुहादा (शहीदों का कब्रिस्तान) जाने की न सिर्फ अनुमति देने से इनकार किया, आदेश के उल्लंघन पर सख्त कार्रवाई की चेतावनी भी दी। इसके बावजूद मुख्यधारा के कई नेता ध्यान खींचने और राजनीतिक फायदा उठाने के लिए अवसर का भरपूर इस्तेमाल करते दिखे।

श्रीनगर में शहीदों के कब्रिस्तान की दीवार पर चढ़ते मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और उन्हें कब्रों के पास जाने से जबरन रोकने की कोशिश में हाथापाई करते पुलिसकर्मियों की तस्वीरें हैरान करने वाली थीं। कश्मीरियों को यकीन ही नहीं हो रहा था कि जेड श्रेणी सुरक्षा प्राप्त मुख्यमंत्री के साथ ऐसी बदसलूकी भी हो सकती है।

उमर के पुराने आलोचक, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस नेता और विधायक सज्जाद लोन ने सोशल मीडिया पर लंबा तंज किया: “तो आप पर हमला हुआ। बेचारे सीएम साहब। मुझे बुरा लग रहा है। हाथापाई के लिए नहीं, बल्कि घटिया कोरियोग्राफी के लिए, उससे भी घटिया कहानी के लिए... क्या आपको पिछले 35 वर्षों में कश्मीर में सुरक्षा बलों द्वारा की जाती रही हाथापाई का मतलब पता है? वे पेशेवर हाथापाई करने वाले हैं। अगर वे वाकई गंभीर हैं, तो एक बार हाथापाई के बाद छोड़ते नहीं हैं। और जो उनके हाथापाई में फंसा, भले ही आपके आदेश पर पकड़ा गया हो, या तो जेल पहुंचा या फिर कब्र में...।” कुछ और नाटकीय नजारे भी थे, जिनमें शिक्षा, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शिक्षा तथा समाज कल्याण विभाग के कैबिनेट मंत्री सकीना इटू स्कूटी पर पीछे बैठकर कब्रिस्तान पहुंचते दिखाई दिए।

उमर अब्दुल्ला, सकीना इटू और फारूक अब्दुल्ला सहित अन्य एनसी नेता शहीद दिवस के अगले दिन शहीदों के कब्रिस्तान गए जबकि पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी की नेता और पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की बेटी इल्तिजा मुफ्ती एक दिन पहले ही कब्रिस्तान का दौरा कर आईं। उमर ने शिकायत की कि शहीद दिवस पर मुख्यमंत्री और उनके मंत्रियों को ‘घरों में नजरबंद’ कर दिया गया था।

वरिष्ठ नागरिक, कवि और लेखक ज़रीफ़ अहमद ज़रीफ़ ने इन राजनेताओं की मंशा पर सवाल उठाते हुए कहा: “आज, ये लोग लगभग एक सदी पहले के शहीदों को श्रद्धांजलि देने का दावा कर रहे, लेकिन जम्मू-कश्मीर में उनके राजकाज में मारे गए लोगों का क्या? क्या उमर उन लगभग 120 नागरिकों को भूल गए, जिनमें से कई बच्चे थे और जिन्होंने 2010 में उनके मुख्यमंत्री कार्यकाल के दौरान अपनी जान गंवाई?” ज़रीफ़ ने पूछा, “इसी तरह, जब 2016 में महबूबा मुफ़्ती मुख्यमंत्री थीं, तब भी अशांति के बीच गोलियों और छर्रों से 100 से ज्यादा लोग मारे गए थे। ये नेता इन शहीदों के बारे में क्यों कुछ नहीं बोलते?”

अलगाववादी और धार्मिक नेता मीरवाइज़ उमर फ़ारूक़ ने एक्स पर लिखा: “सत्ता कम सिखाती है, बेबसी ज्यादा सिखाती है! सीएम साहब ने सत्ता की मनमानी और उसके बाद वाली बेबसी की कड़वी घुट्टी चखी है, जिसका सामना आम कश्मीरी हर दिन किसी न किसी रूप में करता है, क्योंकि उसे वह वांछित अधिकार हासिल नहीं है। उम्मीद है कि यह अनुभव उनका ध्यान हर इंसान की पहली प्राथमिकता पर केन्द्रित करेगा- उसकी गरिमा, उसके मौलिक अधिकारों की रक्षा, और उनकी बहाली के लिए ईमानदारी से काम करना सिखाएगा।”

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ऐसा नहीं कि उमर ने लोगों के सम्मान और अधिकारों की बात नहीं की है- उन्होंने की है, लेकिन सिर्फ चुनावों से पहले और तब जब सत्ता में आने को होते हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने घोषणापत्र में वादा किया था कि सरकार बनाने के बाद, वह न सिर्फ जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल कराने का प्रयास करेगी, बल्कि अनुच्छेद 370 बहाली की मांग भी करेगी। सन 2000 का स्वायत्तता प्रस्ताव लागू करने का भी वादा था। नौ महीने हो चुके हैं, न तो मुख्यमंत्री और न ही पार्टी के किसी अन्य नेता को इन मुद्दों की याद आती है- सिवाय केन्द्र से जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाली का आग्रह करने के।

ज़रीफ़ ने कहा, “कश्मीर में मुख्यधारा के नेता हमेशा झूठे नारों और चांद-सितारे दिखाने का वादा करके लोगों को धोखा देते रहे हैं, लेकिन जब परीक्षा की घड़ी आती है, तो धोखेबाज़ साबित होते हैं। खुले तौर पर वे भले ही केन्द्र की भाजपा सरकार के खिलाफ बोलते दिखें, अपने राजनीतिक हित साधने के लिए सब उसके साथ मिले हुए हैं।”

उमर अब्दुल्ला से संबंधित वीडियो दिखने के बाद सोशल मीडिया पर प्रतिक्रियाओं की बाढ़ आ गई। कुछ ने इसे पब्लिसिटी स्टंट बताया, तो कुछ ने एक साधारण पुलिसकर्मी द्वारा अपमानित किए जाने के लिए मुख्यमंत्री के इस्तीफे की मांग कर डाली।

आलोचकों ने अब्दुल्ला के बयानों में तथ्यात्मक गलतियां भी देखीं: मसलन, यह दावा कि 1931 के शहीदों ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी, जबकि वे मुख्यतः डोगरा शासन का विरोध कर रहे थे। मसलन, एक ट्वीट में, उमर अब्दुल्ला ने दावा किया कि जिन लोगों ने (13 जुलाई, 1931 को) अपनी जान कुर्बान की, वे अंग्रेजों के खिलाफ थे। उन्होंने लिखा, “... कितने शर्म की बात है कि ब्रिटिश शासन के हर रूप के खिलाफ लड़ने वाले सच्चे नायकों को महज इसलिए बतौर खलनायक पेश किया जा रहा है क्योंकि वे मुसलमान थे...।"

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक और कश्मीर टाइम्स की कार्यकारी संपादक अनुराधा भसीन ने अब्दुल्ला का ट्वीट अपने फेसबुक वॉल पर एक छोटी सी तल्ख़ टिप्पणी के साथ रीपोस्ट किया: “जब आप शब्दों को बिना घुमाए-फिराए यह भी नहीं बता पाते कि आपने लड़ाई लड़ी किससे।”

श्रीनगर के पुराने इलाके के एक युवा बाशिंदे ने नाम न छापने की शर्त पर कहा- “ये नेता हर साल एक-दूसरे से होड़ लेते हैं, 1931 के शहीदों को श्रद्धांजलि देते और पुष्पांजलि अर्पित करते हुए खुद का प्रदर्शन करते हैं। लेकिन कोई कभी इन शहीदों के असली वंशजों के बारे में नहीं बोलता। वे सभी श्रीनगर के थे और उनमें से एक मेरे परदादा थे। विडंबना यह कि आज श्रद्धांजलि देने की होड़ में वही लोग हैं जिन्होंने पिछले तीन दशकों में मुख्यमंत्री या मंत्री के रूप में सत्ता में रहते हुए, हर शहीद दिवस पर श्रीनगर के पुराने इलाके में सख्त प्रतिबंध लगा रखे थे।” 

पिछले साल चुनाव प्रचार के दौरान नेशनल कॉन्फ्रेंस ने जनता से तमाम वादे कर वोट मांगे थे और उसे विधानसभा की 90 में से 42 सीटें मिलीं भी। वादों में सत्ता में आने के शुरुआती छह महीनों में एक लाख नौकरियां, जम्मू-कश्मीर और उसके बाहर जेलों में बंद लोगों की रिहाई, 200 यूनिट मुफ्त बिजली, बिजली-पानी संकट से राहत के साथ आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को सालाना 12 मुफ़्त रसोई गैस सिलेंडर देना शामिल था। पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक तारिक अली मीर जनता के मूड का सार इस तरह जाहिर करते हैं: “अगर सत्ताधारी दल अपने वादों का एक अंश भी पूरा कर लेता, तो उसे प्रासंगिक बने रहने के लिए इस तरह के राजनीतिक हथकंडे अपनाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।”

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