"हमारे पास न तो खाने के पैसे हैं और न ही घर का किराया. पिछले तीन महीनों से हम सभी बिना वेतन के अबू धाबी में रहने को मजबूर हैं."
ये शब्द 45 वर्षीय चुरामन महतो के हैं. जो अबू धाबी में 18 महीनों से मसाई कॉन्ट्रैक्टिंग एलएलसी कंपनी के लिए ट्रांसमिशन लाइन का टावर लगा रहे थे.
एक महीने पहले ये प्रोजेक्ट पूरा हो गया है और अब वह बेरोज़गारी की हालत में अबू धाबी के ग्रामीण इलाक़े 'हमीम' में रह रहे हैं.
चुरामन महतो अकेले नहीं हैं. उनके साथ 14 अन्य मज़दूर भी हैं.
न किराया, न ख़ुराकी और न ही इलाजइन 15 मज़दूरों को कंपनी ने रहने के लिए तीन कमरों की किराए की एक डॉरमेट्री दी थी. इसका किराया भी कंपनी ही देती थी लेकिन अब इसे देना भी बंद कर दिया है.
चुरामन बताते हैं, "ऐसे में डॉरमेट्री मालिक ने बुधवार को साफ़ शब्दों में कह दिया कि या तो किराया दो या डॉरमेट्री ख़ाली कर दो."
महतो के साथी लखन सिंह कहते हैं, "डॉरमेट्री का किराया देना तो दूर इस वक़्त हम लोगों को पेट भरने के लाले पड़ रहे हैं. पिछले एक महीने से हम सभी नमक भात या फिर उबला आलू खाकर गुज़ारा कर रहे हैं."
लखन सिंह के साथी सुखदेव सिंह बताते हैं 600 दिरहम ख़ुराकी मिलती थी लेकिन पिछले तीन महीनों में सिर्फ़ 850 दिरहम ही मिली है.
वह पूछते हैं कि "बताइए, अबू धाबी जैसी जगह पर 850 दिरहम से तीन महीने तक कैसे पेट पाला जा सकता है?"
क़रीब दो सप्ताह पहले सुखदेव सिंह फिसलकर गिर गए थे, इसके कारण उनके दाहिने पैर में फ्रैक्चर हो गया है. वह कहते हैं कि "मैं दिन भर अपने बेड पर पड़ा रहता हूं. पैसे के अभाव में अब यही मेरा इलाज है."
सुखदेव बताते हैं, "फ्रैक्चर के बारे में मैंने अपने सुपरवाइज़र मनीराज को सूचित किया लेकिन मुझे कोई सहायता नहीं मिली."
तंगहाली से गुज़र रहा परिवारलखन सिंह बताते हैं, "इसी वजह से अपनी व्यथा बताने के लिए अपने गृह ज़िला गिरिडीह के निवासी प्रवासी मज़दूर एक्टिविस्ट सिकंदर अली के माध्यम से सोशल मीडिया पर एक वीडियो जारी किया. ताकि हमें तत्काल सहायता मिल सके."
लखन सिंह कहते हैं कि 'मसला सिर्फ़ हम 15 मज़दूरों का नहीं, बल्कि हमारे परिवार के भरण पोषण का भी है, जो झारखंड में तीन महीने से वेतन के अभाव में तंगहाली से जूझ रहा है.'
कंपनी के जनरल मैनेजर एनटी रेड्डी तीन महीने से वेतन न दिए जाने की बात स्वीकार करते हैं. वह कहते हैं, "ये टेंपरेरी इशू है, लोकल प्रोजेक्ट मैनेजर की रिपोर्ट लगने में देरी हो गई और इसके कारण हमारी इनवॉइस क्लियर नहीं हुई और वेतन रुक गया."
जनरल मैनेजर की बात पर लखन सिंह कहते हैं कि "कंपनी में शुरू से ही अनियमितता बरती गई है. जिसका ख़ामियाज़ा हमारा परिवार भुगत रहा है."
हर महीने 1100 दिरहम के वेतन पर इन्हें अबू धाबी लाया गया था. पिछले तीन महीने के हिसाब से यह 3300 दिरहम बनता है. इसे अगर रुपये में बदल दें तो यह क़रीब 69 हज़ार रुपये हो जाते हैं.
लखन सिंह कहते हैं कि "ये रक़म हमारे लिए पूंजी है, जिसे कमाने हम समंदर पार इतनी दूर आए हैं."
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झारखंड के हज़ारीबाग ज़िले के गोविंदपुर पंचायत में लखन सिंह की पत्नी सैकी देवी अपने दो बेटों के साथ एक किराए के मकान में रहती हैं.
वह बताती हैं कि पति को वेतन न मिलने के कारण घर का तीन महीने का किराया नहीं दे पाई हैं और पिछले दिनों छोटे बेटे दीपक के दोनों हाथ टूट गए, इलाज के लिए ब्याज पर पैसे लेने पड़े.
एक निजी अस्पताल में दीपक का इलाज चल रहा है. इलाज में क़रीब 19 हज़ार रुपये ख़र्च कर चुकी सैकी देवी कहती हैं, "एक बार विष्णुगढ़ जाने के लिए बोलेरो बुक करने पर 5 हज़ार ख़र्च करने पड़ते हैं. ऐसे में वेतन नहीं मिलेगा तो क़र्ज़ बढ़ता जाएगा."
सैकी देवी कहती हैं कि बेटे की गंभीर हालत की एक फ़ोटो कंपनी के जीएम को भेजी थी लेकिन इसके बावजूद भी 'उन्हें दया नहीं आई कि पति के वेतन से कुछ पैसे इलाज के लिए दे देते.'
इस संबंध में बीबीसी ने कंपनी के जनरल मैनेजर एनटी रेड्डी से बात की. उन्होंने कहा, "मुझे लखन सिंह के पुत्र की जानकारी है और मैं कोशिश कर रहा हूं कि जल्द से जल्द उनका वेतन भुगतान कर सकूं ताकि उनकी सहायता हो सके."
लेकिन लखन सिंह कहते हैं, "कंपनी आज कल कह कर सिर्फ़ टाल रही है और पैसों के अभाव में मेरे बेटे का इलाज प्रभावित हो रहा है."
दुकानदारों ने उधार देना भी बंद कियालखन सिंह की तरह अन्य मज़दूरों के परिवारों की भी हालत वेतन नहीं मिलने के कारण ख़राब हो गई है.
इसमें गिरिडीह ज़िले के बैजनाथ महतो, महेंद्र महतो, सीताराम महतो, मूरत महतो के अलावा हज़ारीबाग ज़िले के चंद्रिका महतो, कैलाश महतो, बिशुन महतो, जगन्नाथ सिंह, सुखदेव सिंह, अर्जुन महतो, त्रिलोकी महतो, बालेश्वर महतो और धनबाद ज़िले के संजय कुमार महतो शामिल हैं.
चुरामन महतो का परिवार गिरिडीह के अलखरी खुर्द गांव में रहता है.
उनकी पत्नी जशोदा देवी बताती हैं कि तीन महीने से मोहल्ले के किराना दुकान से उधार में तेल, साबुन के अलावा अन्य ज़रूरी सामान लेती थीं लेकिन उधार नहीं चुका पाने के कारण दुकानदार ने सामान देने से मना कर दिया है.
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मसाई कॉन्ट्रैक्टिंग एलएलसी कंपनी में काम करने वाले आठ मज़दूरों को कंपनी ने बिना वेतन ही भारत भेज दिया. ये सभी इन 15 मज़दूरों के साथ काम करते थे.
इसे लेकर कंपनी के जीएम रेड्डी कहते हैं कि वेतन भुगतान में सिर्फ़ देरी हुई है, लोकल प्रोजेक्ट मैनेजर के द्वारा इनवॉइस क्लियर होते ही भुगतान हो जाएगा.
अबू धाबी में फंसे 15 मज़दूरों में से कुछ के पास लेबर कार्ड नहीं है. इनमें चंद्रिका महतो, महेंद्र महतो, सीताराम महतो, मूरत महतो और सुखदेव सिंह के नाम शामिल हैं.
चंद्रिका महतो चिंतित स्वर में कहते हैं कि 'लेबर कार्ड न होने से हम कहीं भी आ जा नहीं सकते.' वह पूछते हैं कि "ऐसे में यूएई प्रशासन ने अगर हम लोगों को पकड़कर अवैध प्रवेश बता दिया, तब हमारा क्या होगा?"
इसे लेकर कंपनी के जीएम ने कोई जवाब नहीं दिया है.
'मेरा पासपोर्ट एक्सपायर होने वाला है'चंद्रिका महतो कहते हैं कि एक बार भुगतान मिल जाए तो हम सभी भारत वापस लौट जाना चाहते हैं.
इसे लेकर जीएम रेड्डी कहते हैं, "एक बार सभी का वेतन का भुगतान हो जाए तब चर्चा करूँगा कि अगले प्रोजेक्ट में किसे रखना है और किसे वापस भेजना है."
एक मज़दूर जगन्नाथ सिंह अपने पासपोर्ट को लेकर चिंतित हैं.
वह कहते हैं कि '30 जुलाई 2025 को मेरा पासपोर्ट एक्सपायर हो जाएगा. मैं जब भी जीएम से कहता हूं, वह टालते हुए कहते हैं कि अभी समय है, पासपोर्ट का रिन्यूअल यूएई में हो जाएगा.'
वह आगे कहते हैं कि "जैसे-जैसे एक्सपायरी डेट नज़दीक आ रही है मेरी चिंता बढ़ती जा रही है कि कहीं मैं किसी बड़ी परेशानी में न फंस जाऊं."
लेबर कार्ड और पासपोर्ट को लेकर झारखंड के संयुक्त श्रम आयुक्त प्रदीप लकड़ा कहते हैं कि ये मामला हमारे संज्ञान में है और संबंधित विभाग को जानकारी देते हुए इसे हल किया जाएगा.
क्या कहते हैं अधिकारी?
अबू धाबी में फंसे मज़दूरों के मामले को लेकर हज़ारीबाग और गिरिडीह के ज़िला उपायुक्त ने कहा कि इस मामले की उन्हें जानकारी नहीं है.
वहीं झारखंड के संयुक्त श्रम आयुक्त ने बताया, "प्रोटेक्टर ऑफ़ इमिग्रेंट, यूएई स्थित भारतीय दूतावास और कांसुलेट लेबर विंग दुबई को मामले से अवगत करवाते हुए सभी की पासपोर्ट डिटेल्स भी साझा कर दी गई है. आशा करते हैं कि एक दो दिनों में इस मामले में कार्रवाई शुरू हो जाएगी."
विदेश मंत्रालय में प्रोटेक्टर ऑफ़ इमिग्रेंट के पदाधिकारी सुशील कुमार कहते हैं कि 'ऐसे मामलों में सबसे पहले हम उन एजेंट से संपर्क करते हैं जिन्होंने इन श्रमिकों को विदेश भेजा. उसके बाद उनके माध्यम से ही श्रमिकों की समस्या हल करवाते हैं. इस केस में भी यही प्रक्रिया चल रही है.'
संयुक्त श्रम आयुक्त प्रदीप लकड़ा कहते हैं, "कई लोग बिना पंजीकरण के ही विदेश चले जाते हैं और इसी वजह से वह समस्या का शिकार होते हैं."
झारखंड के श्रम अपर सचिव सुनील कुमार सिंह कहते हैं, "भविष्य में पंचायत स्तर पर पंजीकरण की तैयारी की जा रही है, ताकि लेबर किसी फ्रॉड कंपनी का शिकार होने से बच सकें."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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