नीरज घेवान अब इंटरव्यू देकर थक गए हैं. कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में उनकी दूसरी फ़ीचर फ़िल्म 'होमबाउंड' को काफी सराहा गया है.
इस फ़िल्म की स्क्रीनिंग के बाद 9 मिनट तक खड़े होकर लोगों ने तालियां बजाईं. ये सब देखकर नीरज भावुक नज़र आए और ऐसा लगा कि उन्हें अपनी भावनाओं को जाहिर करने के लिए शब्द नहीं मिल रहे हों.
उन्होंने कहा, "मुझे लगता है कि मैं खुद को दोहरा रहा हूं, मेरे पास कहने के लिए कुछ नया नहीं है."
वो उस मौके पर ऐसा कह रहे हैं जब ज़्यादातर फ़िल्म निर्माता अपने काम को दूर तक ले जाने और खुद की पहचान को आगे बढ़ाने में हिचकिचाते नहीं हैं.
लगातार आत्ममंथन करना ही घेवान की पहचान है और इससे ये भी संकेत मिलता है कि उन्होंने 2015 में अपनी पहली फ़िल्म 'मसान' आने के तुरंत बाद दूसरी फ़िल्म बनाने में क्यों संकोच किया था.
'मसान' प्रेम, दुख और उस लालसा की कहानी है जिसकी इच्छा अंदर ही अंदर खाए जाती है. जाति-व्यवस्था को दिखाती इस फ़िल्म की कहानी बनारस में बुनी गई है.
'मसान' को कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल में 'अन सर्टन रिगार्ड' कैटेगरी में दिखाया गया था.
इस कैटेगरी में उन फ़िल्मों को शामिल किया जाता है जो कुछ अलग और नई तरह की कहानियां बताती हैं. मसान एफआईपीआरईएससीआई क्रिटिक्स अवॉर्ड और प्री अवेनियर प्रोमेट्यूर अवॉर्ड जीतने में सफल रही.
'होमबाउंड' घेवान की पहली फ़िल्म 'मसान' के दस साल बाद आई है और संयोग से यह भी कान के उसी 'अन सर्टन रिगार्ड' सेक्शन में दिखाई गई.
वो कहते हैं, "मैं आत्म संदेह से भरा था. 'मसान' के लिए मिली प्रशंसा ने मेरी हिचकिचाहट को और बढ़ा दी. मैं कुछ चुनौतीपूर्ण और उस चीज की तलाश में था जिसका कोई सार्थक मतलब हो. कुछ ऐसा जो मुझसे मेल खाए, जो मुझसे सवाल करे और मुझे दूसरों से सवाल करने दे."
इस फ़िल्म की प्रेरणा पत्रकार बशारत पीर की 'द न्यूयॉर्क टाइम्स' में 2020 में छपी स्टोरी 'टेकिंग अमृत होम' से मिली.
यह स्टोरी मोहम्मद सैय्यूब और उनके बचपन के दोस्त अमृत कुमार की कहानी थी. ये कुछ ऐसे प्रवासी लोगों में शामिल थे जो कोविड लॉकडाउन 2020 के दौरान पैदल ही अपने घर को जाने को मजबूर हुए थे.
घेवान ने ये कहानी स्क्रिप्ट कंसल्टेंट सुमित रॉय के साथ मिलकर गढ़ी थी. इसमें मोहम्मद सैय्यूब का किरदार मोहम्मद शोएब अली के रूप में तैयार किया गया है और इस भूमिका में इशान खट्टर हैं, जबकि अमृत कुमार से प्रेरित किरदार चंदन कुमार है और इस भूमिका में विशाल जेठवा नजर आए हैं.

पहली फ़िल्म के बाद दूसरी फ़िल्म बनाने में लंबा इंतजार और संकोच के बावजूद घेवान एक बात को लेकर बेहद स्पष्ट थे कि उनकी दुनिया सिनेमा में ही है.
मूल रूप से हैदराबाद से ताल्लुक रखने वाले घेवान के पास इंजीनियरिंग और एमबीए की डिग्री है.
वो गुड़गांव में कॉर्पोरेट में नौकरी करने के साथ ही अब बंद हो चुकी पैसनफॉरसिनेमा.कॉम में कंट्रीब्यूट करते थे.
फ़िल्म निर्माता अनुराग कश्यप के प्रोत्साहित करने के बाद वो मुंबई चले गए और उनके साथ 'गैंग्स ऑफ़ वासेपुर' और 'अगली' में असिस्टेंट डायरेक्टर के रूप में काम किया.
उनकी प्रतिभा सबसे पहले दो शॉर्ट फ़िल्म्स, 'शोर' और 'एपिफ़नी' में देखने को मिली. मसान और होमबाउंड के बीच, उन्होंने एक और लोकप्रिय शॉर्ट फ़िल्म 'जूस' बनाई.
इसके अलावा उन्होंने नेटफ़्लिक्स की लोकप्रिय सिरीज़ 'सेक्रेड गेम्स' और अमेजन प्राइम वीडियो के लिए 'मेड इन हेवन' के कई एपिसोड्स का निर्देशन किया.
उन्होंने नेटफ़्लिक्स की एंथोलॉजी फ़िल्म 'अजीब दास्तान्स' के एक भाग, 'गीली पुच्ची' का निर्देशन किया.
इस फ़िल्म को भारत की बड़ी प्रोडक्शन और डिस्ट्रीब्यूशन कंपनियों में से एक धर्मा प्रोडक्शन ने प्रोड्यूस किया. इस कंपनी के प्रमुख करण जौहर हैं.
घेवान, 'होमबाउंड' के जरिए दूसरी बार करण जौहर के साथ काम कर रहे हैं.
इन सभी फ़िल्म ने उन्हें देश के सबसे प्रतिभाशाली फ़िल्मकारों की लीग में स्थापित कर दिया है.
वहीं उनके लिए 'होमबाउंड' में सबसे बड़ा सम्मान यह रहा कि दुनिया के दिग्गज निर्देशकों में से एक माने जाने वाले मार्टिन स्कॉर्सीस 'होमबाउंड' के साथ एक्जीक्यूटिव प्रोड्यूसर के रूप में जुड़े.
मार्टिन स्कॉर्सीस को 'मसान' भी बहुत पसंद आई थी और वे उस फ़िल्म से भी जुड़ने वाले थे, लेकिन कुछ वजहों से ये हो नहीं पाया.
उन्होंने 'होमबाउंड' की स्क्रिप्ट तीन बार पढ़ी और फ़िल्म को कई बार देखा, ताकि वो घेवान को रचनात्मक सुझाव दे सकें.
घेवान कहते हैं, "उनके साथ ज़ूम कॉल पर होना अब भी एक सपने जैसा लगता है."
निर्देशक के लिए ये कुछ ऐसा अनुभव रहा जिन पर अब भी उन्हें विश्वास नहीं होता.
हाशिये की आवाज़ बन गया घेवान का सिनेमाघेवान महाराष्ट्र के नागराज मंजुले, तमिलनाडु के पा रंजीत, मारी सेल्वराज, लीना मणिमेकलई और ज्योति निशा जैसे निर्देशकों के साथ मिलकर समकालीन भारतीय सिनेमा में जाति पर केंद्रित कहानियों को सामने लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं.
इन लोगों की तरह ही सिनेमा में भी उनकी अपनी वास्तविकता झलकती है, चाहे ये जानबूझकर हो या अनजाने में. इस पर वो कहते हैं, "हम कुछ भी करें हमारा जीवन हमारे काम में झलक ही जाता है."
यह इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि मुख्यधारा की हिंदी फ़िल्मों में जाति या हाशिए के पात्रों की कहानियां बहुत कम ही दिखाई जाती हैं.
ये विषय आमतौर पर 70-80 के दशक की समानांतर या क्षेत्रीय सिनेमा में ही दिखती हैं.
और इन विषयों पर जो फ़िल्म बनी भी हो वो ज़्यादातर उच्च जाति और उच्च वर्ग के फ़िल्म निर्माताओं ने बनाई है और उस पर सवर्ण दृष्टिकोण की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है.
'द हिंदू' में जून 2015 की छपी एक स्टडी में पाया गया कि 2013-14 में रिलीज़ हुई लगभग 300 बॉलीवुड फ़िल्मों से केवल छह में मुख्य पात्र पिछड़ी जाति के थे.
ये बात सही मायनों में 90 के दशक के हिंदी सिनेमा पर लागू होती है. उस दौर में हाशिए के पात्रों के लिए कोई जगह नहीं थी. इसके विपरीत, तमिल फ़िल्मों में पिछड़ी जाति के पात्रों की संख्या अधिक थी.
हाशिए पर पड़े समुदायों को बतौर आंकड़ा देखना न सिर्फ़ ग़लत है बल्कि अमानवीय भी है. ऐसा करना आपके प्रीविलेज होने के अहसास को और बढ़ा सकता है लेकिन इससे उन समुदायों के प्रति आपकी जिम्मेदारी पूरी नहीं होती.
घेवान कहते हैं, ''मैं चाहता हूं कि मेरा सिनेमा किसी व्यक्ति विशेष के बारे में हो. ये उन लोगों की तादाद या संख्या के बारे में न हो. सिर्फ निर्जीव आंकड़े न हों. उनमें किसी मनुष्य की कहानी हो. मेरा सिनेमा लोगों की ज़िंदगियों में गहरे गोते लगाने वाला हो.''

घेवान हिंदी सिनेमा की ब्राह्मणवादी प्रवृतियों को तोड़ने की कोशिश करते रहते हैं लेकिन वो अपनी पहचान खुल कर जाहिर नहीं करते थे .
'द हिंदू' में दलित सिनेमा पर प्रकाशित एक लेख (23 जनवरी, 2016 को छपे लेख 'न्यू वॉयसेज बट नॉट एनफ न्यॉज') के लिए दिए गए इंटरव्यू में आरक्षण का मुद्दा सहज ही सामने आ गया. उन्होंने कहा कि कैसे उनका छात्र और कामकाजी जीवन का ज्यादातर हिस्सा इन कथित 'अधिकारों' को छिपाने में बीता.
जातिवाद झेलने के अपने अनुभव के बारे में वो अपने एक लेख में कहते हैं, ''कोटे के साथ जो धब्बा जोड़ दिया गया है वह आपको पंगु बना देता है. ये आपका आत्मविश्वास छीन लेता है. आपको अपने ही दोस्तों के बीच एक अनदेखे भेदभाव का शिकार बना देता है.''
उन्होंने पहली बार सार्वजनिक तौर पर अपनी पहचान ट्विटर (अब एक्स) पर जाहिर की जब फ़िल्ममेकर विवेक अग्निहोत्री ने एक दलित नेता के विमान में फर्स्ट क्लास में सफर पर चर्चा की. घेवान ने इसका जवाब देते हुए कहा था कि वो खुद दलित हैं. उन्होंने कथित जाति कार्ड का इस्तेमाल किए बगैर अपनी जगह और कद हासिल किया है.
तब घेवान के नायक उनके जैसे ही थे. जैसे 'होमबाउंड' का चंदन जो पहले जनरल और रिजर्व्ड कैटेगरी के तहत नौकरी के लिए अप्लाई करता है.
जैसा कि फ़िल्म में दिखाया गया है कि उत्पीड़न और 'पैदाइशी शर्म' की विरासत जानबूझकर (किसी दलित को) अपनी पहचान छिपाने में मदद करती है. ताकि कोई अलग-थलग रहने के बजाय लोगों में घुलमिल सके.
'मसान' में दीपक कुमार (विक्की कौशल) श्मशान में काम करने वाले डोम परिवार से आते हैं, लेकिन उनमें जिंदगी में अच्छा करने की इच्छा है. सिविल इंजीनियरिंग का वो छात्र आख़िर में भारतीय रेलवे में इंजीनियर की नौकरी हासिल कर लेता है.
क्या घेवान अपनी आने वाली फ़िल्मों में जाति के विषय को उठाते रहेंगे?
घेवान हिंदी सिनेमा के उन बहुत कम दलित निर्देशकों में से जिन्होंने एक मुकाम हासिल किया और जिन्हें फ़िल्मी बिरादरी की मान्यता मिली है. शायद वो अकेले ऐसे निर्देशक हैं.
वो कहते हैं, "अगर हम अपनी कहानियाँ नहीं कहेंगे, तो कौन कहेगा? लेकिन मैं सचेत होकर कहानियां नहीं तलाशता."
घेवान किसी दायरे में बंधना या किसी खांचे में समाना नहीं चाहते. वे ऐसी कहानियाँ दिखाना चाहते हैं जो व्यापक दायरे की हो. लेकिन वो वर्ग, लिंग, कामुकता, अंतर्संबंध और सबाल्टर्न समुदाय की कहानियों की ओर खिंचते हैं.
घेवन कहते हैं, "यह मेरे हर काम धुरी रही है और उम्मीद है कि भविष्य में भी यही मेरे काम का आधार होगा.''
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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