27 नवंबर, 2008 को प्रभाकरण ने जो भाषण दिया था वो उनकी ज़िंदगी का अंतिम भाषण साबित हुआ.
इस बात का अंदाज़ा किसी को नहीं था कि कुछ ही महीनों में उनकी ज़िंदगी ख़त्म होने वाली है लेकिन अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उनके तेवर नहीं बदले.
सन 1975 में जाफ़ना के तमिल मेयर की हत्या, और उसके एक साल बाद एलटीटीई की स्थापना करने के बावजूद मोटे तौर पर प्रभाकरण लंबे समय तक दुनिया के लिए एक अनजान शख़्सियत ही बने रहे.
जब मई 1982 में उन्हें पहली और आख़िरी बार मद्रास में पकड़ा गया तो भारतीय प्रशासन ने उन्हें ज़्यादा तवज्जो नहीं दी, तब भारतीय प्रशासन ने प्रभाकरण को एक छोटा-मोटा अपराधी ही माना.
सन 1983 में जब उन्हें 13 सिंहला सैनिकों की हत्या के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया तो तमिल अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ माहौल बन गया, जिसने उनके देश की नियति को हमेशा के लिए बदलकर रख दिया.
तब तक श्रीलंका पूरी दुनिया में सिर्फ़ अपनी चाय और मनोरम दृश्यों के लिए ही मशहूर था.
चार सालों के अंदर रसूख और आत्मविश्वास इस हद तक बढ़ गया कि प्रभाकरण ने भारत की सैनिक ताक़त तक को चुनौती देने में कोई हिचक नहीं दिखाई.
श्रीलंका के पवित्र नगर अनुराधापुरा में सिंहली बौद्ध लोगों की हत्या के बाद प्रभाकरण की काफ़ी चर्चा शुरू हुई.
इसके तुरंत बाद श्रीलंका में उनके प्रतिद्वंद्वी तमिल संगठनों के नेताओं की हत्याएं शुरू हो गईं और यही माना गया कि तमिलों के अकेले नेता बनने की कोशिश के तहत ऐसा हो रहा है.
मशहूर पत्रकार एमके नारायण स्वामी अपनी किताब 'द राउट ऑफ़ प्रभाकरण' में लिखते हैं, "प्रभाकरण का हर शब्द क़ानून होता था. उसे चुनौती नहीं दी जा सकती थी. अगर आप उसके सामने सिर झुकाते और उसकी कही हर बात से सहमत होते तभी आप तमिल ईलम के लिए लड़ सकते थे."
"अगर आप उससे असहमत होते तो आपको या तो एलटीटीई छोड़ना पड़ता या फिर इस दुनिया को. विरोध करने वाले हर शख़्स को 'देशद्रोही' क़रार दे दिया जाता था और उससे उसी तरह निपटा जाता था जैसे पूर्व सोवियत नेता जोज़ेफ़ स्टालिन अपने विरोधियों से निपटते थे."
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प्रभाकरण के संगठन ने सिर्फ़ श्रीलंका में नहीं, बल्कि भारत में ख़ास लोगों को अपना निशाना बनाया. कभी-कभी ऐसे लोगों को भी जिन्होंने उनकी या एलटीटीई की कभी-न-कभी मदद की थी.
जानी-मानी पत्रकार और लेखिका अनीता प्रताप अपनी किताब 'आइलैंड ऑफ़ ब्लड' में लिखती हैं, "एक शख़्स जो प्रभाकरण के शुरुआती जीवन के बारे में किताब लिखने की योजना बना रहा था उसे पेरिस के घर के सामने गोली मार दी गई."
"पूर्वी और उत्तरी श्रीलंका के ग़रीब परिवार के तमिल बच्चों को उनके अभिभावकों की इच्छा के ख़िलाफ़ एलटीटीई के लिए लड़ने के लिए मजबूर किया गया जबकि प्रभाकरण अपने ख़ुद के तीन बच्चों को प्यार, खिलौने और अपेक्षाकृत सुखी जीवन दे रहा था. उसने अपने पुराने साथी की इस शक पर हत्या करवा दी कि वो भारत के लिए जासूसी कर रहा था."
श्रीलंका के एक रक्षा मंत्री की उस समय हत्या कर दी गई जब वो अपने दफ़्तर जा रहे थे. एक तमिल विदेश मंत्री की उस समय हत्या कर दी गई जब वो स्वीमिंग पूल में तैर रहे थे. एक राष्ट्रपति को उस समय मारा गया जब वो मई दिवस की एक विशाल रैली को संबोधित कर रहे थे.
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी को भी आत्मघाती बम के ज़रिए निशाना बनाया गया जब वह तमिलनाडु में चुनाव प्रचार कर रहे थे.

प्रभाकरण ने ये कभी महसूस नहीं किया कि ज़रा-ज़रा सी बात पर हिंसा का सहारा लेना एक दिन उनके पतन का भी कारण बनेगा.
एक समय ऐसा आया जब श्रीलंका के क़रीब एक-तिहाई हिस्से पर नियंत्रण रखने वाले प्रभाकरण एक फ़ुटबॉल के मैदान के बराबर इलाके़ तक संकुचित होकर रह गए.
एक तमिल टाइगर ने नाम न बताने की शर्त पर याद किया, "पहली बार मैंने एलटीटीई के लड़ाकों की आँखों में डर की परछाई देखी. सालों तक एलटीटीई को बहुत नज़दीक से देखने वाले मुझ जैसे शख़्स के लिए ये बिल्कुल नई बात थी."
"17 मई को प्रभाकरण ने अपने ख़ास लोगों से कहा कि वो लड़ाई के मैदान से नहीं भागेंगे और न ही हथियार डालेंगे लेकिन अगर कोई लड़ाई से हटना चाहता है तो वो इसके लिए आज़ाद है. जो आम नागरिकों के बीच घुल-मिल जाना चाहते हैं वो अपने हथियार छोड़ कर वहाँ जा सकते हैं. जो दुश्मन के हाथ में पड़ने से बचने के लिए मरना चाहते हैं वो सायनाइड की गोली खा सकते हैं."
ये उस शख़्स की ओर से बहुत दयनीय विदाई थी जिसके अनुयायी उसे सूर्य देवता का अवतार कहते थे और जिनका मानना था कि उसकी कभी हार नहीं हो सकती.
ये संयोग नहीं था कि प्रभाकरण को जो कुछ भी कहना था उसे कहने के लिए उसने 17 मई का दिन चुना.
प्रभाकरण के एक पुराने साथी राजेश कुमार ब्रिटेन में रहते हैं, अब उन्हें राघवन के नाम से जाना जाता है.
उनका कहना है, "प्रभाकरण 8 अंक को अपना अशुभ अंक मानते थे. प्रभाकरण 8, 17 और 26 तारीख़ को ऐसा कोई भी काम करने से बचते थे जिसमें आगे चलकर परेशानी की आशंका हो. उनका अंधविश्वास इतना अधिक था कि वो इन तारीख़ों में पूरा दिन अपने ठिकाने पर छिपकर रहते थे और अगले दिन ही बाहर निकलते थे."
राघवन बताते हैं, "शायद यही कारण था कि 1980 के दशक में तमिलनाडु में एलटीटीई के दस प्रशिक्षण शिविर लगाए गए थे. वास्तव में कुल नौ प्रशिक्षण शिविर ही लगे थे क्योंकि आठवाँ प्रशिक्षण शिविर जान-बूझकर नहीं आयोजित किया गया था."
अप्रैल, 2008 में मन्नार का उत्तर-पश्चिम ज़िला श्रीलंकाई सेना के क़ब्ज़े में आ गया था. इसके बाद नवंबर में सामरिक रूप से महत्वपूर्ण ठिकाने पूनेरिन और मानकुलम को भी तमिल विद्रोहियों को छोड़ना पड़ा था.
प्रभाकरण को सबसे बड़ा धक्का मई, 2008 में तब लगा था जब एलटीटीई के सबसे अनुभवी सैनिक नेता कांदिया बालासेखरन उर्फ़ बलराज की दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई थी.
एलटीटीई ने बालासेखरन के सम्मान में तीन दिन के शोक की घोषणा की थी. तमिल टाइगर्स के कई पूर्व लड़ाकों का मानना है कि अगर बलराज की मौत नहीं हुई होती तो श्रीलंका की सेना के साथ उनकी लड़ाई का परिणाम कुछ और ही होता.
सन 2009 आते-आते प्रभाकरण को और झटके मिलने शुरू हो गए थे. सरकारी सेनाओं ने पहले परनतन पर क़ब्ज़ा किया और फिर उसके नज़दीक किलिनोच्चि पर अधिकार किया जिसे एलटीटीई प्रशासित क्षेत्र की एक तरह की राजधानी माना जाता था.
यही वह जगह थी जहाँ तमिल टाइगर्स का नेतृत्व विदेशी आगंतुकों से मिलता था और जहाँ अप्रैल, 2002 में प्रभाकरण ने अपने आख़िरी संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया था.
किलिनोच्चि की हार ने तमिल टाइगर्स के मनोबल को बुरी तरह से प्रभावित किया था.
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टाइगर्स को तब बहुत शर्मसार होना पड़ा जब उनके हाई प्रोफ़ाइल मीडिया संयोजक वेलायुधन दयानिधि उर्फ़ दया मास्टर और प्रभाकरण के भाषणों का अनुवाद करने वाले कुमार पंचरतनम उर्फ़ जॉर्ज ने आगे बढ़ती हुई श्रीलंका की सेना के सामने आत्मसमर्पण कर दिया.
राष्ट्रपति महिंदा राजापक्षे के छोटे भाई गोटाबाया राजपक्षे उस समय श्रीलंका के रक्षा मंत्री थे, और एलटीटीई के खिलाफ़ सैनिक अभियान का नेतृत्व कर रहे थे.
एमआर नारायण स्वामी लिखते हैं, "गोटाबाया राजपक्षे पर अमेरिका का ज़बरदस्त दबाव पड़ा कि वो लड़ाई का तुरंत अंत करें. राजपक्षे जिनके पास अमेरिका की नागरिकता भी थी, उन्होंने अमेरिकी वार्ताकारों को कोई आश्वासन नहीं दिया लेकिन 14 मई को अपने सैनिक कमांडरों से अपनी चिंता ज़रूर बाँटी."
"उन्होंने उनसे सवाल किया कि ये लड़ाई कब तक खिंचेगी? उन्होंने कहा कि इस लड़ाई का जल्द ही जीत में अंत होना चाहिए वरना अमेरिकी दबाव को झेलना मुश्किल हो जाएगा."
16 मई को श्रीलंकाई सेना ने एलटीटीई की अंतिम रक्षा पंक्ति को ध्वस्त कर दिया.
इस ख़बर को सुनते ही जी-11 के शिखर सम्मेलन में भाग लेने गए राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने समय से पहले ही एलटीटीई पर सैनिक जीत की घोषणा कर दी.
एलटीटीई के अंतरराष्ट्रीय मामलों के प्रमुख कुमारन पथमंथन उर्फ़ केपी ने उसी दिन क्वालालंपुर में एलान किया, "लड़ाई अपने अंतिम चरण में पहुंच चुकी है. हमने अपनी बंदूकें बंद करने का फ़ैसला किया है."
महिंदा और केपी दोनों ने बोलने में शायद जल्दबाज़ी कर दी क्योंकि तीन तरफ़ से घिर चुके प्रभाकरण ने लड़ाई जारी रखने का फ़ैसला किया था.
इतनी भीषण लड़ाई चल रही थी कि तमिल टाइगर्स कई दिनों से नहाए नहीं थे. उनके खाने की आपूर्ति भी क़रीब-क़रीब ख़त्म हो चुकी थी. कुछ तमिल छापामारों ने आत्महत्या कर ली ताकि वो श्रीलंकाई सैनिकों के हाथ न पड़ सकें.
17 मई की रात को श्रीलंका के सैनिकों ने टाइगर्स के अंतिम जत्थे को 1600 वर्ग मीटर के एक इलाके तक सीमित कर दिया था. वो तीन तरफ़ से घिरे हुए थे. चौथी तरफ़ नंदीकादल झील थी जहाँ श्रीलंका की नौसेना निगरानी रखे हुए थी.
17 मई का दिन एलटीटीई के लिए बहुत बदकिस्मत साबित हुआ क्योंकि उस दिन उसके 150 से अधिक लड़ाके मारे गए जिसमें उनके कई कमांडर भी शामिल थे.
एलटीटीई के एक छापामार 'एसके' ने बाद में एक इंटरव्यू में बताया, "प्रभाकरण को आख़िरी बार 17 मई की सुबह जीवित देखा गया. मैं 6 बजे उस जगह पर पहुंचा जहाँ प्रभाकरण मौजूद थे. हमारा सारा खाना ख़त्म हो चुका था."
"आप इस बात पर यकीन करें या न करें लेकिन प्रभाकरण बिल्कुल सामान्य दिखाई दे रहे थे, हालांकि उन्हें यह अहसास हो गया था कि तमिल ईलम बनाने का उसका सपना बुरी तरह से टूटने के कगार पर है."

अगले दिन टाइगर्स के बचे-खुचे लड़ाकों ने सैनिक घेराबंदी तोड़ने का प्रयास किया. उसमें वो कामयाब भी हो गए, लेकिन 30 मिनटों के अंदर श्रीलंकाई सैनिक दोबारा इकट्ठा हो गए.
इस बार उन्होंने जो जवाबी हमला किया उसमें एलटीटीई के कई कमांडर और प्रभाकरण का 24 साल का बेटा चार्ल्स एंटनी भी मारा गया.
जब श्रीलंकाई सैनिकों ने एंटनी के मृत शरीर की तलाशी ली तो उन्हें उसके पास से 23 लाख श्रीलंकाई रुपये मिले.
53वीं डिवीज़न के कमांडर कमल गुणरत्ने ने स्वीकार किया कि तब तक प्रभाकरण, पोट्टू अम्मान और सूसाई को छोड़कर टाइगर्स के चोटी के नेतृत्व का सफ़ाया हो चुका था.
श्रीलंकाई सेनाध्यक्ष जनरल सनत फ़ोन्सेका ने ये साफ़ कर दिया था कि जब तक प्रभाकरण के बारे में कोई ख़बर नहीं मिलती, लड़ाई जारी रहेगी.
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19 मई की सुबह तक मेजर गुणरत्ने को प्रभाकरण का कोई अता-पता नहीं था. तभी उनके एक जूनियर अफ़सर ने उन्हें बताया कि नंदीकादल इलाके के कीचड़ भरे खारे पानी में ज़बरदस्त लड़ाई छिड़ गई है. वहाँ एलटीटीई के कई लड़ाके फंसे हुए हैं. उनमें से कोई भी हथियार डालने के लिए तैयार नहीं है.
आख़िरकार लड़ाई ख़त्म होने के एक घंटे बाद गुणरत्ने को वो ख़बर मिली जिसका वो इंतज़ार कर रहे थे.
गॉर्डन वाइस अपनी किताब 'द केज, द फ़ाइट फ़ॉर श्रीलंका एंड द लास्ट डेज़ ऑफ़ तमिल टाइगर्स' में लिखते हैं, "कर्नल रविप्रिया ने मेजर जनरल गुणरत्ने को बताया, 'सर, हमने प्रभाकरण को मार दिया है'."
अचंभे से भरे गुणरत्ने ने पूछा, 'आर यू श्योर ?' कर्नल रविप्रिया का जवाब था, 'यस, श्योर एज़ द सन एंड द मून, सर.'
लेकिन गुणरत्ने पूरी तरह से निश्चिंत होना चाहते थे इसलिए उन्होंने कर्नल ललिंथा गमागे को उस जगह पर भेजा. कुछ ही मिनटों में सैनिक टेलीफ़ोन पर गमागे की लगभग चीखती हुई आवाज़ गूँजी, 'सर, यूरेका. सर इट इज़ करेक्ट. इट इज़ प्रभाकरण.'
पूरी तरह से निश्चिंत हो जाने के बाद गुणरत्ने ने ये ख़बर सेनाध्यक्ष जनरल फ़ोन्सेका को दी. इससे पहले उन्होंने अपने सैनिकों को प्रभाकरण का शव उनके पास लाने के लिए कहा.
एमआर नारायण स्वामी लिखते हैं, "तब तक उस स्थान पर करीब तीन हज़ार श्रीलंकाई सैनिक जमा हो चुके थे जहाँ प्रभाकरण का शव पड़ा हुआ था. कुछ सैनिक गंदे उथले पानी के अंदर कूदकर शव को बाहर निकाल लाए."
"जैसे ही सैनिकों ने प्रभाकरण के शव को देखा उन्होंने हवा में गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं. एक अफ़सर ने उन सैनिकों को अनुशासित करने की कोशिश की लेकिन उसकी बातों का किसी पर कोई असर नहीं हुआ."
जनरल फोन्सेका उस समय श्रीलंका की संसद में थे जब उन्हें ये समाचार मिला. फ़ोन्सेका के फ़ोन पर गुणरत्ने ने सिंहला भाषा में कहा- 'महा एस इवाराई' यानी 'बड़ा आदमी मारा गया'.

करीब आधा घंटा पहले करीब पौने दस बजे प्रभाकरण की मृत्यु हुई थी. उस समय उनकी उम्र थी 54 वर्ष.
एमआर नारायण स्वामी लिखते हैं, "उनके माथे पर बड़ी चोट थी जिसने उनके सिर को दो हिस्सों में बाँट दिया था. उनका मुँह खुला हुआ था और उनकी आँखें ऊपर की तरफ़ देख रही थीं मानों वो उस चीज़ से अवाक रह गए थे जिसने उन्हें धराशायी किया था. उनकी दाढ़ी के बाल सफ़ेद थे."
"जब मेजर जनरल गुणरत्ने ने उनके शरीर को छुआ तो वो अब भी गर्म था. माथे के अलावा उनके शरीर पर गोली का एक भी ज़ख़्म नहीं था. प्रभाकरण ने सैनिक वर्दी पहनी हुई थी. उनकी जेब की तलाशी लेने पर एलटीटीई का एक पहचान-पत्र मिला जिसका सीरियल नंबर था 001, और उसे 1 जनवरी, 2007 को जारी किया गया था."
इसके अलावा उनके पास से डायबिटीज़ की कुछ दवाएं भी पाई गईं. उनके पास से अंगूर की महक का एक हैंड लोशन भी मिला जिसे सिंगापुर से ख़रीदा गया था. उनके सिर पर हुए गहरे ज़ख़्म को नीले कपड़े से ढँका गया था.
गॉर्डन वाइस ने लिखा, "एक सैनिक अफ़सर ने मुझे बताया था कि प्रभाकरण की मौत 12.7 एमएम की एक गोली से हुई थी."
श्रीलंका के सेनाध्यक्ष जनरल फ़ोन्सेका ने आदेश दिया कि प्रभाकरण की सैनिक वर्दी उतार दी जाए. उनका तर्क था कि श्रीलंका के सैनिकों के अलावा किसी और को सैनिक वर्दी पहनने का अधिकार नहीं है.
प्रभाकरण के शव की शिनाख़्तनारायण स्वामी लिखते हैं, "फ़ोन्सेका ने गुणरत्ने से कहा कि कि वो दो पूर्व एलटीटीई नेताओं कर्नल करुणा और दया मास्टर को वहाँ भेज रहे हैं ताकि वो प्रभाकरण के शव की शिनाख़्त कर सकें."
"दोनों पूर्व टाइगर्स को सैनिक विमान से वहाँ लाया गया. उन्होंने निर्जीव पड़े शख़्स की पहचान करने में एक सेकेंड का भी समय नहीं लगाया."
प्रभाकरण की मौत के साथ ही तमिल ईलम के हथियारबंद आंदोलन और श्रीलंका में दशकों से जारी ख़ूनी गृह युद्ध का अंत हो गया.
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